Sunday, 31 July 2011
सांवरो कान्हा
काहे सांवरो तू कारो, कैया राधे मतवारी,
सारी सुध बुध थारे पाछे है भुलाय गयी,
गोपियन की कतार बाँध के जलाय रहयो,
कैसी सुकुमारी कलि देखो कुम्हलाय गयी,
ठाकुर बनेगो कैसे , ठकुराई कौन जाने,
झूठ मूठ नाम थारो, जग मैं थिराय गयी,
देखत है राह राधे, राह थारी लम्बी भाई,
राह को जो राही सब राह तो गुमाय गयी,
मति भ्रम म्हारो भयो, राधे तो है भूली गयी ,
दुनिया की मति मैं तो तुम्हीं समाय गयो ,
राधे,मीरा बावरी है, जाने कित्ते द्वार खडे,
सांवरो और कारो रंग, सर्वस्व बिसराय दियो.
आजादी या दासता
चलो आज फिर से आजाद हुए पांखी,
उडे हैं उडाये गए हैं आसमान मैं,
छुआ है हवा को उन्मुक्त खुले मन से,,
मिले हैं थे तडपे स्वछंद हैं ये पांखी,
...उडे हैं ना रुकते कहीं ठौर पर भी
हैं उडते धवल से . बने शान्ति अग्रिम ,
था जीवन बड़ा ही सरल सा पिंजरे मैं,
कोई कर्म ना था, बेकार था ये पांखी,
अभी उड़ चला ये, तो कोशिश करेगा,
खुद अपना और संगी का दम भरेगा,
मिलेगा जो मेह्नत से वही बाँट लेगा,
दिलों मैं जगह अब वो घटने ना देगा,
कभी एक इंसान से पूछो ये बातें,
कभी दास्ताँ थी ,बड़ी लम्बी रातें,
मगर कुछ तो बाकी अभी रह गया है,
मिली है आजादी, येही वाकया है,
कुछ रस्मों रिवाजो को हम पालते हैं,
सुरों मैं सभी आगाज ढालते हैं,
मगर अब भी बाकी, आजादी नहीं है,
उड़ा है गगन मैं,पंख बाकी एहीं हैं
उडे हैं उडाये गए हैं आसमान मैं,
छुआ है हवा को उन्मुक्त खुले मन से,,
मिले हैं थे तडपे स्वछंद हैं ये पांखी,
...उडे हैं ना रुकते कहीं ठौर पर भी
हैं उडते धवल से . बने शान्ति अग्रिम ,
था जीवन बड़ा ही सरल सा पिंजरे मैं,
कोई कर्म ना था, बेकार था ये पांखी,
अभी उड़ चला ये, तो कोशिश करेगा,
खुद अपना और संगी का दम भरेगा,
मिलेगा जो मेह्नत से वही बाँट लेगा,
दिलों मैं जगह अब वो घटने ना देगा,
कभी एक इंसान से पूछो ये बातें,
कभी दास्ताँ थी ,बड़ी लम्बी रातें,
मगर कुछ तो बाकी अभी रह गया है,
मिली है आजादी, येही वाकया है,
कुछ रस्मों रिवाजो को हम पालते हैं,
सुरों मैं सभी आगाज ढालते हैं,
मगर अब भी बाकी, आजादी नहीं है,
उड़ा है गगन मैं,पंख बाकी एहीं हैं
काश अपुन भी होता इस नोट के ऊपर छपा हुआ,
रविवार के दिन ही चलता, मेरी फोटो का नोट ये,
अपुन छापता दिन भर इसको, रात को शौपिंग करता,
हर शौपिंग काम्प्लेक्स मैं बस अपना ही जलवा रहता,
नोटों की थैली लेकर हम जब भी बाहर जाते,
हाथ बांधकर खडे सभी हो, जोर सलामी देते,
मेरे नोटों से ये शहर का कारोबार सब चलता,
सन्डे का दिन नाम हो अपना, अपुन कर चर्चा चलता,
नोट वोट सब मैल हाथ का, हम भी तुम भी जाली ,
सब उपवन है सजा इसीसे, हम सब इसके माली,
भरी तिजोरी सेठ वही है, इनसे सी है सब बीमारी,
जय जय बोलो नोट छपे जब, बाकी सब रेजगारी.
Saturday, 30 July 2011
एक सबब प्यार का
एक सबब प्यार का, कुछ तो है बात ये,
हो ही जाती है क्यों बात बिन बात के ,
अपनी यादों को रख दर किनारे कहीं,
आ ही जाती है याद ये बिन बात के
हमने देखा है जो उम्र के मोड़ पर,
हैं खडे वो छितिज़ की तरह याद मैं,
जाने गुम हैं कहीं,कहीं मशगूल है,
उनको आवाज दी ,बोलते ही नहीं.
ऐसे दुनिया मैं रिश्ते हैं बनते मगर,
प्यार ऐसा है जो ,बात होती जुदा,
उसकी यादें है तनहा समा साथ मैं,
सूख जाती हैं आँखें फुहारों के साथ मैं.
अब तो ऐसे हैं वो, एक शिला जैसी है,
कितने दिन के शगूफे जेहन मैं पडे,
कब तलक आग दबके रहे उनमें यूँ,
देखते हैं उन्हें जलते अनल की तरह.
इसलिए बारिशों से तवारुफ़ करें,
उसकी बूंदों से जलने की आदत जो है,
भाप बनकर उडी उसके तन से छुई,
आग बूंदों की माफिक चमक सी गयी .
खुशबू की सबा
अनोखी सी शिद्दत अनोखा सा मंजर,
ये दिल है धड़कता बिना बात ही क्यों
नहीं हमको मालूम ये शग्ले तब्बसुम,
बिना बात ऐसे महकता है क्यों ये,
कहीं गुल अमलतास के हैं बगीचे,
कहीं कोई महकती कली खिल गयी है,
कहीं कोई गुजरा किसी जंगलों से,
हवा बह के आयी मेरे पास ही क्यों ,
महकते हैं हम जाने किस बयार से ,
कहाँ से वो आती जाने किस दयार से.
एक पल को लगा हम कहीं खो गए हैं,
अभी ही तो रुखसत हुए उस बहार से हम,
"दुश्मनी"
दुश्मनी की ये बाबत कहें क्या कहें ,
हमने खुद से ही खुद को अलग कर लिया,
बाड़ से सब अलग, दूरियां बढ़ गयी,
जो थे रिश्ते सभी, बंदूकें तन गयी,
अब तो लम्हों ने जो फैसला कर दिया,
सदियों को भी रिवाजों से सहना पडा,
कुछ चले भी अगर, रोक कर फिर वहीं,
उनके पैरों को तालों से सीना पडा ,
दुश्मनी दुश्मनी क्या कोई जात है?
ये दिन है यहाँ वो कहें रात है,
इतनी खाई बड़ी , जो पटेगी नहीं,
कितनी मिट्टी पडी पर अड़ेगी वहीं,
दूर से बस हवा को सलामी ही दो,
वो जो अपना कभी ,अब पयामी तो दो,
वो भी खुश है वहां , हम भी कोशिश करें,
दुश्मनी को ख़तम , दोस्ती नाम दें.
बाड़ से सब अलग, दूरियां बढ़ गयी,
जो थे रिश्ते सभी, बंदूकें तन गयी,
आँख के आंसू सूखे, जमी नप गयी.
ये तुम्हारा हमारा, हमीं हैं नहीं,अब तो लम्हों ने जो फैसला कर दिया,
सदियों को भी रिवाजों से सहना पडा,
कुछ चले भी अगर, रोक कर फिर वहीं,
उनके पैरों को तालों से सीना पडा ,
दुश्मनी दुश्मनी क्या कोई जात है?
ये दिन है यहाँ वो कहें रात है,
इतनी खाई बड़ी , जो पटेगी नहीं,
कितनी मिट्टी पडी पर अड़ेगी वहीं,
दूर से बस हवा को सलामी ही दो,
वो जो अपना कभी ,अब पयामी तो दो,
वो भी खुश है वहां , हम भी कोशिश करें,
दुश्मनी को ख़तम , दोस्ती नाम दें.
"जीवन का मर्म"
कभी आंसू को मत पीना, ये और रुलायेंगे,
कभी गम को मत पीना , ये दिल और दुखायेंगे,
कभी सर को न झुकाना, लोग और झुकायेंगे,
कभी पीछे मत रहना , लोग आगे बढ़ जायेंगे,
खुद को मानो श्रेष्ठ सबसे, मन ही मन ये मान लो,
गलतियाँ जो हो गयी हो, तुरत ही पहचान लो,
श्रेष्ठता इसमें ही है, जो गिर के फिर उठ ही गए,
आंसुओं का दोष क्या, वो बह गए बारिश के साथ
Friday, 29 July 2011
"निर्माण"
विषय गत बात तो तब होगी जब एक घरौंदा बन जाए,
छोटा ही सही पर सुंदर सा, उसमें रहने का सुख अनुपम,
पूँजी का संचय करे अभी ,फिर हम निर्माण की सोचेंगे
आगे का क्या जानू भैया , संचय प्रावधान का सोचेंगे.
निर्माण किया एक सपना भी ,पर वो अदृश्य सा रहता है,
जब जब आँखें बंद करू, एक दृश्य बना सा तिरता है,
ना मिटटी गारे की जरुअत, ना नीव है उसकी गहरे मैं,
बस स्वप्न रूप मैं साथ मेरे, निर्माण लक्छ्य का करता है.
अब सोचूँ वो जो पालक है, कैसे तो बनाया पूर्ण विश्व,
कैसे खींचा होगा खाका ,जल,थल और नभ का एक सदृश,
वो अभियंता क्या अजब गजब हम दावे करते रहते हैं,
वो कर जाता निर्माण सभी, हम दर्शक बन कद गिनते हैं,
निर्माण हो कुछ, निर्मित हो कुछ, कुछ भी हो बना सब इस जग का,
आदेश उसी का सर्वोपरि, वो ही पालक , जग अभियंता,
निर्माण करो इस जीवन का,दे दिया बनाकर जल,थल,नभ,
बनकर इंसान रहो इसपर, निर्माणित धरा , सब हमसब का,
"अंगूठी"
प्यार की निशानी या प्रेम का हो बंधन
दायरा जरूरी है ये दायरे की बात है,
छोटी सी है प्यारी सी है, हीरे की या पीतल की,
भावना जुडी है इससे ,ह्रदय सी आकार मैं,
सोने और चांदी का ना मोल भाव इससे जुडा
किसीने दिया हो तो सोच लेना प्यार दिया,
ये भी एक बंधन है प्यार के धरोहर सी,
जाने कितने रूप इसके ,जाने कितना दाम है,
हाथ एक वरदान इश्वर का वरद हस्त,
हाथ की अँगुलियों का बढाती ये मान है,
मोल प्रेम का नहीं कुछ, इसका जो भी लगा लो,
प्रेम से पहनाया उसने, येही तो सम्मान हैं,
दिल को है बांध लिया, उसको पता है ज़रा,
चांदी नहीं सोना नहीं , हीरे का अरमान है,
लेकिन फिर वही "का करू सजनी आये ना बालम (धन)
Wednesday, 27 July 2011
श्याम मैं तिहारी भई मोको दूजी नाहीं आस,
थारी सुध मैं तो सारी दुनिया भुलाय गयी,
आओ मोरे द्वारे कान्हा, चितचोर चोरी करो,
मारे मन की हम गठरी बनाय दई,
...सब कुछ झूठ साचा , कितनो है मन बांचा,
कितनो ह्रदय मैं थारी छवि है समाय गयी,
इत-उत फिरके है दिवस बिताय दीन्ही,
अखियाँ रैन भई , स्वप्न तो सजाय नहीं,,
मीरा भाई बावरी है ,कान्हा रूप मांग लीन्ह्यो ,
राधा श्याम संग राची, बावरी बनाय दीन्ह्यो,
एक बारी मोहन मुरारी मोको मिल जावो कहीं ,
प्रीत के ये रीति सब जग मैं फैलाय दीन्ही.
चालत, उठत ,सोवत एक ही तो बात कहूं,
श्याम सन राधे नाम नियति बनाय लीन्ही
श्याम नहीं मिले मोसे, जनम जन्मान्तर तक,
नाम मैं का राखा, सब श्याम मैं मिलाय दीन्ही.
"उपभोगता वादी पुरुष और व्यावसायिक होती महिलाए ---आज के संदर्भ में कितने प्रासंगिक है ----?..."
"उपभोगता वादी पुरुष और व्यावसायिक होती महिलाए ---आज के संदर्भ में कितने प्रासंगिक है ----?..."
by Suman Mishra on Thursday, 28 July 2011 at 00:52
Photo 3>
सब कुछ बिकता है,,,,,मगर जादा क्या बिकता है,,,जो भी बिकता है सब इंसान की जरूरत के हिसाब से ही है,हर जरूरत की चीज़ इंसान की जरूरत के मुताबिक़ ही बनायी जाती है, जो भी उत्पाद है उसकी गुणवत्ता सबसे अधिक माने रखती है, लेकिन गुणवत्ता का माप दंड क्या उपभोक्ता करता है, क्या उसे ज्ञान है की जिस वस्तु को वो खरीदता है उसकी मन मर्जी के मुताबिक़ है की नहीं.कैसे करेगा भी कैसे सुंदर सुंदर पैक मैं उपलब्ध वस्तु बस आकर्षण का केंद्र हो ही जाती है , दूरदर्शन, समाचार पत्र या पत्रिकाओं मैं बडे ही अनोखे अंदाज सी कारीगरी होती है ,चित्रकारी होती है इन वस्तुओं की देखते ही मन ललकने लगता है की तुरंत वो भी उस वस्तु का उपभोक्ता बन जाए,उपभोक्ता का आकर्षण उत्पाद के प्रति क्या आप जानते हैं....
.हम्म्म्म.....सोचिये......सोचिये........कारन है....."नारी" जी हाँ "नारी"
*********************************************************************************************
मजबूरियों ने कदम बाहर क्या बढाए
पीछे पलट के देखने का समय ही नहीं मिला,
ये जिन्दगी होती बहुत ही खुशगवार सी,
वो साथ मैं रहता मेरे , हम साथ मैं उसके,
कुछ ख्वाहिशें उसकी भी थी हम ने बढ़ाया हाथ,
जो भी करेंगे भार नहीं होगा मेरा साथ,
कितना कठिन है जीवन , कभी हार है यहाँ,
पर बढ़ गए कदम तो अब करें क्या कहाँ.
मजबूरियाँ बहुत हैं मगर रास्ता नहीं,
जो रास्ता मिला वही अख्तियार कर लिया,
कुछ तो कमी रही है की हम हैं अकेले यूँ,
कुछ आसरा दिखा नहीं, खुद बेजार कर लिया.
"पुरुष उत्पादों पर नारी का चित्रण"
****************************
सूना है आजकल नारी शराब, सिगरेट पीने लगी है, लोग उसपर लांछन लगाते है,कौन लगाता है पुरुष समाज , उनकी हाँ मैं हाँ मिलाने वाली उनके सहयोगी ,क्यों अगर नारी पीती है तो लोग उसपर उंगलिया उठायें, और जब उसका विज्ञापन देती है तो लोग उसके कैलंडर घरों मैं लगते हैं, सड़कों पर बडे बडे इश्तिहार लोगों की आँख सकने का काम करते हैं, उसे ही देखकर उस ब्रांड की बिक्री तेजी से होती है.मगर क्यों...क्या नारी निकोटीन या अल्कोहल मैं घुला हुआ नशा है....कभी किसी ने आपत्ति की हम ये शराब को हाथ नहीं लगायेंगे या सिगरेट को छुएंगे नहीं.
खेल के मैदान मैं cheer लीडर्स का बढ़ता प्रभाव.
********************************
अब लोग खेल भावना से नहीं जाते हैं, या जर चौके, छक्के के बाद इन चीयर लीडर्स का क्या समाज
की भावना बदलती जा रही है, इन्हें उत्तेजक परिधानों को पहनाकर जिस तरह उतारा कूदना टीवी मैं
या मैदान मैं लोगों की नजरें इन्हीं पर जादा होती हैं और खिलाड़ी पर कम,उछलना
जाता है मैदान मैं बडे ही शर्म की बात है भारतीय समाज के लिए, कभी किसी ने आपत्ति की ?
दूरदर्शन विज्ञापन और खाद्य उत्पादों पर नारी चित्रण..
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
आज दूरदर्शन सबसे शशक्त माध्यम है मनोरंजन का और इस माध्यम को छोटे, बडे, बूढे सभी ने अपना अभिन्न अंग बना लिया है, लेकिन विज्ञापनो की बढ़ती तादाद , अश्लीलता की इकाई के शून्य बढ़ती चली जा रही है, नारी पर आरोपित serials , विज्ञापन मैं नारी का प्रथम दर्जा भले ही उस उत्पाद से नारी का कोई सम्बन्ध न हो,किन्हीं विज्ञापनों पर तो नारी को जानवरों की तरह वस्त्रहीन दिखा कर पुरुष के पीछे भागते हुए दिखाने का क्या औचित्य है ,,,क्या नारी समाज का हिस्सा नहीं, नारी एक वस्तु या उपभोग की चीज़ बन गयी है,कोई भी पेय पदार्थ जिस पर नारी का चित्र, वस्त्रों के प्रदर्शनी मैं नारियों की नुमाइश , क्या पुरुष वर्ग अचेत पडा है, उसे आगे नहीं आना चाहिए इसे रोकने के लिए....क्या नारी अगर अपने परिवार के बहारां पोषण के लिए चार पैसे कामना छाती है तो उसे दूसरे क्रियान्वयन छेत्र मैं पारंगत करना चाहिए जिससे विगयापन की गुणवत्ता और उसमें नारी का सहयोग मर्यादित तरीके से हो.
क्या नारी जीवन की प्रासंगिकता ख़तम हो रही है ?
************************************
कुछ गिने चुने ओहदों से नारी का सम्मान हुआ करता ?
क्या लछमी बाई ,रजिया और चेन्नमा नाम सुना करता,
हर वस्तु अगर बिकती है तो वो घर की शोभा बनती है,
पर उसके पहले नारी की इज्जत तिल तिल कर बंटती है,
क्या दिग दर्शन मैं कितने शब्द बताओ हैं बिन नारी के,
अब कहीं का रख ना छोड़ा है, बस नाम के रह गयी नारी है.
सब कुछ बिकता है,,,,,मगर जादा क्या बिकता है,,,जो भी बिकता है सब इंसान की जरूरत के हिसाब से ही है,हर जरूरत की चीज़ इंसान की जरूरत के मुताबिक़ ही बनायी जाती है, जो भी उत्पाद है उसकी गुणवत्ता सबसे अधिक माने रखती है, लेकिन गुणवत्ता का माप दंड क्या उपभोक्ता करता है, क्या उसे ज्ञान है की जिस वस्तु को वो खरीदता है उसकी मन मर्जी के मुताबिक़ है की नहीं.कैसे करेगा भी कैसे सुंदर सुंदर पैक मैं उपलब्ध वस्तु बस आकर्षण का केंद्र हो ही जाती है , दूरदर्शन, समाचार पत्र या पत्रिकाओं मैं बडे ही अनोखे अंदाज सी कारीगरी होती है ,चित्रकारी होती है इन वस्तुओं की देखते ही मन ललकने लगता है की तुरंत वो भी उस वस्तु का उपभोक्ता बन जाए,उपभोक्ता का आकर्षण उत्पाद के प्रति क्या आप जानते हैं....
.हम्म्म्म.....सोचिये......सोचिये........कारन है....."नारी" जी हाँ "नारी"
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मजबूरियों ने कदम बाहर क्या बढाए
पीछे पलट के देखने का समय ही नहीं मिला,
ये जिन्दगी होती बहुत ही खुशगवार सी,
वो साथ मैं रहता मेरे , हम साथ मैं उसके,
कुछ ख्वाहिशें उसकी भी थी हम ने बढ़ाया हाथ,
जो भी करेंगे भार नहीं होगा मेरा साथ,
कितना कठिन है जीवन , कभी हार है यहाँ,
पर बढ़ गए कदम तो अब करें क्या कहाँ.
मजबूरियाँ बहुत हैं मगर रास्ता नहीं,
जो रास्ता मिला वही अख्तियार कर लिया,
कुछ तो कमी रही है की हम हैं अकेले यूँ,
कुछ आसरा दिखा नहीं, खुद बेजार कर लिया.
"पुरुष उत्पादों पर नारी का चित्रण"
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सूना है आजकल नारी शराब, सिगरेट पीने लगी है, लोग उसपर लांछन लगाते है,कौन लगाता है पुरुष समाज , उनकी हाँ मैं हाँ मिलाने वाली उनके सहयोगी ,क्यों अगर नारी पीती है तो लोग उसपर उंगलिया उठायें, और जब उसका विज्ञापन देती है तो लोग उसके कैलंडर घरों मैं लगते हैं, सड़कों पर बडे बडे इश्तिहार लोगों की आँख सकने का काम करते हैं, उसे ही देखकर उस ब्रांड की बिक्री तेजी से होती है.मगर क्यों...क्या नारी निकोटीन या अल्कोहल मैं घुला हुआ नशा है....कभी किसी ने आपत्ति की हम ये शराब को हाथ नहीं लगायेंगे या सिगरेट को छुएंगे नहीं.
खेल के मैदान मैं cheer लीडर्स का बढ़ता प्रभाव.
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अब लोग खेल भावना से नहीं जाते हैं, या जर चौके, छक्के के बाद इन चीयर लीडर्स का क्या समाज
की भावना बदलती जा रही है, इन्हें उत्तेजक परिधानों को पहनाकर जिस तरह उतारा कूदना टीवी मैं
या मैदान मैं लोगों की नजरें इन्हीं पर जादा होती हैं और खिलाड़ी पर कम,उछलना
जाता है मैदान मैं बडे ही शर्म की बात है भारतीय समाज के लिए, कभी किसी ने आपत्ति की ?
दूरदर्शन विज्ञापन और खाद्य उत्पादों पर नारी चित्रण..
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आज दूरदर्शन सबसे शशक्त माध्यम है मनोरंजन का और इस माध्यम को छोटे, बडे, बूढे सभी ने अपना अभिन्न अंग बना लिया है, लेकिन विज्ञापनो की बढ़ती तादाद , अश्लीलता की इकाई के शून्य बढ़ती चली जा रही है, नारी पर आरोपित serials , विज्ञापन मैं नारी का प्रथम दर्जा भले ही उस उत्पाद से नारी का कोई सम्बन्ध न हो,किन्हीं विज्ञापनों पर तो नारी को जानवरों की तरह वस्त्रहीन दिखा कर पुरुष के पीछे भागते हुए दिखाने का क्या औचित्य है ,,,क्या नारी समाज का हिस्सा नहीं, नारी एक वस्तु या उपभोग की चीज़ बन गयी है,कोई भी पेय पदार्थ जिस पर नारी का चित्र, वस्त्रों के प्रदर्शनी मैं नारियों की नुमाइश , क्या पुरुष वर्ग अचेत पडा है, उसे आगे नहीं आना चाहिए इसे रोकने के लिए....क्या नारी अगर अपने परिवार के बहारां पोषण के लिए चार पैसे कामना छाती है तो उसे दूसरे क्रियान्वयन छेत्र मैं पारंगत करना चाहिए जिससे विगयापन की गुणवत्ता और उसमें नारी का सहयोग मर्यादित तरीके से हो.
क्या नारी जीवन की प्रासंगिकता ख़तम हो रही है ?
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कुछ गिने चुने ओहदों से नारी का सम्मान हुआ करता ?
क्या लछमी बाई ,रजिया और चेन्नमा नाम सुना करता,
हर वस्तु अगर बिकती है तो वो घर की शोभा बनती है,
पर उसके पहले नारी की इज्जत तिल तिल कर बंटती है,
क्या दिग दर्शन मैं कितने शब्द बताओ हैं बिन नारी के,
अब कहीं का रख ना छोड़ा है, बस नाम के रह गयी नारी है.
"नेत्र हीन का संसार/दर्द"
"नेत्र हीन का संसार/दर्द"
********
बहुत रंगीन है संसार , बहुत से रंग हैं,
हम भी तो रोज रंग मैं रंग के आते हैं,
एक पानी ही है जो रंग का मोहताज नहीं,
वरना सब रंग से ही नाम जाने जाते हैं,
कोई गोरा, कोई काला, को मटमैला सा,
यहाँ तो दिल भी है काला सूना है ऐसा भी,
मगर रंगों की कहानी कहाँ तक सच्ची है,
कुछ-एक रंग से अनजान जाने जाते हैं.
बस एक आवाज ,हवा,स्पर्श इनका जरिया है,
प्यार के शब्द मिले जिन्दगी नज़रिया है,
वरना रस्ता जहां का एक जैसा है इनका,
ये तो गतिमान हैं पर रंग जमा है इनका,
बहुत ही दर्द है जो आँख के रास्ते जाता,
रास्ता है या नदी वही इन्हें बतलाता,
दर्द को पी के कुछ ऊर्जा मिली तो चलते हैं.
येही अंदाजे बयाँ जिन्दगी का करते हैं.
"पानी का बुलबुला"
"पानी का बुलबुला"
*******************
कवी कल्पित, दर्पित भावों से कितने भी रूप गढ़े इनका,
देखे जो खुद वो सृजन करे, ये रूप धरे आकान्छाओं का,
ये तिश्नित दुनिया का चेहरा, कुछ दंभ भरा,कुछ बिना भाव,
कुछ भी मोल लगा लो तुम, होगा एक पल मैं एहीं चूर,
कितनी उछाल, कितना सुंदर, इतराना खुद के जीवन पर,
मैं क्या हूँ ये पूछा ही नहीं, ब्योरा देना उसके तन पर,
क्या जीवन की गति साथ चले ? या कोई इशारा करता है,
परछाईं बनकर वो खुद अपने मन का ही पीछा करता है ?
छ्न्भंगुर जीवन का क्या मोल, सब शीशे सा मन का दर्पण,
बुलबुला बना ये धड़क रहा, है ह्रदय नाम इस चिंतन का,
कल तलक हवा के साथ उड़ा, सारी दुनिया थी आँखों मैं,
अब आज जमी पर पडा कहीं बिखरा बनकर यूँ कण कण मैं,
अस्तित्व हमारा अजब गजब, हम विश्व विभा के साछी हैं,
पर मंथन मन कब मान रहा, जीवन की विधा का दैविक पल.
बस एक फूँक और ख़तम हुआ साँसों का आना जाना फिर,
अब कैसे इसे शशक्त करे, जीवन का ताना बाना अब.
"पानी का बुलबुला"
*******************
कवी कल्पित, दर्पित भावों से कितने भी रूप गढ़े इनका,
देखे जो खुद वो सृजन करे, ये रूप धरे आकान्छाओं का,
ये तिश्नित दुनिया का चेहरा, कुछ दंभ भरा,कुछ बिना भाव,
कुछ भी मोल लगा लो तुम, होगा एक पल मैं एहीं चूर,
कितनी उछाल, कितना सुंदर, इतराना खुद के जीवन पर,
मैं क्या हूँ ये पूछा ही नहीं, ब्योरा देना उसके तन पर,
क्या जीवन की गति साथ चले ? या कोई इशारा करता है,
परछाईं बनकर वो खुद अपने मन का ही पीछा करता है ?
छ्न्भंगुर जीवन का क्या मोल, सब शीशे सा मन का दर्पण,
बुलबुला बना ये धड़क रहा, है ह्रदय नाम इस चिंतन का,
कल तलक हवा के साथ उड़ा, सारी दुनिया थी आँखों मैं,
अब आज जमी पर पडा कहीं बिखरा बनकर यूँ कण कण मैं,
अस्तित्व हमारा अजब गजब, हम विश्व विभा के साछी हैं,
पर मंथन मन कब मान रहा, जीवन की विधा का दैविक पल.
बस एक फूँक और ख़तम हुआ साँसों का आना जाना फिर,
अब कैसे इसे शशक्त करे, जीवन का ताना बाना अब.
*******************
कवी कल्पित, दर्पित भावों से कितने भी रूप गढ़े इनका,
देखे जो खुद वो सृजन करे, ये रूप धरे आकान्छाओं का,
ये तिश्नित दुनिया का चेहरा, कुछ दंभ भरा,कुछ बिना भाव,
कुछ भी मोल लगा लो तुम, होगा एक पल मैं एहीं चूर,
कितनी उछाल, कितना सुंदर, इतराना खुद के जीवन पर,
मैं क्या हूँ ये पूछा ही नहीं, ब्योरा देना उसके तन पर,
क्या जीवन की गति साथ चले ? या कोई इशारा करता है,
परछाईं बनकर वो खुद अपने मन का ही पीछा करता है ?
छ्न्भंगुर जीवन का क्या मोल, सब शीशे सा मन का दर्पण,
बुलबुला बना ये धड़क रहा, है ह्रदय नाम इस चिंतन का,
कल तलक हवा के साथ उड़ा, सारी दुनिया थी आँखों मैं,
अब आज जमी पर पडा कहीं बिखरा बनकर यूँ कण कण मैं,
अस्तित्व हमारा अजब गजब, हम विश्व विभा के साछी हैं,
पर मंथन मन कब मान रहा, जीवन की विधा का दैविक पल.
बस एक फूँक और ख़तम हुआ साँसों का आना जाना फिर,
अब कैसे इसे शशक्त करे, जीवन का ताना बाना अब.
"कविता का मर्म क्या देश प्रेम"
क्यों दर्द लिखा, क्यों धर्म लिखा,
क्यों जन जन ब्यंजन दर्द भरा,
क्यों मन की व्यथा से मन तड़पा,
क्यों आंसू से है मन सींचा.
क्यों गीत नहीं है सुरभि युक्त,
क्यों मन गाता नहीं यछ गान,
क्यों तरुवर पाती नहीं यहाँ,
क्यों सुमधुर ध्वनि ना ध्वनित यहाँ,
क्यों रूप रूप श्रृंगार नहीं,
क्यों पायल, कंगन गीत नहीं,
क्यों देश धर्म सब त्रस्त यहाँ
क्यों मन का मन आह्लाद नहीं,
********
जब आँख खुली कोहरा कोहरा,
सब पन्ने खून से रंगे हुए,,
उसने मारा, उसको रौंदा,
सब मनमौजी सा रहते हैं,
जिसकी लाठी उसकी है भैस,
हिम्मत है क्या छीनो देखें,
जब सत्य छुपा बस शब्दों मैं,
हम लेखन से इसको सींचें ??????
सुनता है कौन अब सत्य यहाँ,
सब पछ सबूत खरीद रहे,
क्या शब्द रंगे हम गढ़े हुए,
हम शिल्पी हैं पर झुके हुए,
तुम बात करो हम साथ साथ
बलिदानी बनकर क्या होगा,
है देश अभी जिन हाथों मैं,
अभिमानी बनकर क्या होगा.See more
Tuesday, 26 July 2011
"मेरा मन"
"मेरा मन" बहुत विचित्र है, नितांत होना चाहता है,
किसकी खोज करता है, कुछ चमत्कार देखना चाहता है,
उसकी अनुकम्पा वो जो सर्वंग्य है वो कहाँ है,
वो दिखे तो सही , क्या उसे डर है कोई देख लेगा,
क्यों डरता है वो मानव से , क्यों नहीं सामने आता वो,
चलो सबको नहीं मुझे ही दिख जाए,,,,कहीं भी,
किसकी खोज करता है, कुछ चमत्कार देखना चाहता है,
उसकी अनुकम्पा वो जो सर्वंग्य है वो कहाँ है,
वो दिखे तो सही , क्या उसे डर है कोई देख लेगा,
क्यों डरता है वो मानव से , क्यों नहीं सामने आता वो,
चलो सबको नहीं मुझे ही दिख जाए,,,,कहीं भी,
बाद्लों के पार छुपा है क्या वो, बादल छटेंगे , मल्हार राग की जरूरत है
अंधेरे मैं तीर नहीं दीपक राग की रोशनी मैं तो दिखेगा,
मेरी बातों का कोई सर पैर नहीं, तो उसका ही कोई सर पैर नहीं
अंधेरे मैं तीर नहीं दीपक राग की रोशनी मैं तो दिखेगा,
मेरी बातों का कोई सर पैर नहीं, तो उसका ही कोई सर पैर नहीं
बस नाम रख दिया सबका मालिक एक है,,,कैसे वही जाने,
हमें जब तक आभास नहीं होगा कैसे कह सकता है वो???
हमें जब तक आभास नहीं होगा कैसे कह सकता है वो???
" चाहत का भुलावा "
ज़रा पाने की चाहत मैं बहुत कुछ छूट जाता है,
मुझे सब याद रहता है, उसे सब भूल जाता है,
उसकी की लिखी चाहत मैं फिराई जब कभी यादें,
उभर आया था वो चेहरा, खुदा भी भूल जाता है,
कभी यादें, कभी सपने, कभी वो सामने रहता,
मुझे कहना है क्या उससे गिला सब भूल, जाता है,
जमाने के सितम अब तो, रखे हैं सर और आँखों पर,
ज़माना आगे आगे है, वो हमदम भूल जाता है,
चलो कुछ और भी तक़रीर,बनाएं अपनी तकदीरें,
भले दामन किसी का हो, ये जीवन भूल जाता है,
कभी कुछ तो कहो ऐसे की हमको याद कुछ भी है,
मगर ऐसी ही रुसवाई ,मैं क्या हूँ सब भुलाता है.,
ना याद आओ, ना याद करना, हवाओं की बता देना,
ज़माना करवटें ना ले, ये रिश्ता क्या निभाता है,
मिलेगे फिर कभी जब भी कोई दुश्वारी ना आये,
रहा सब याद उसका मुझमें क्या है भूल जाता है.
मुझे सब याद रहता है, उसे सब भूल जाता है,
उसकी की लिखी चाहत मैं फिराई जब कभी यादें,
उभर आया था वो चेहरा, खुदा भी भूल जाता है,
कभी यादें, कभी सपने, कभी वो सामने रहता,
मुझे कहना है क्या उससे गिला सब भूल, जाता है,
जमाने के सितम अब तो, रखे हैं सर और आँखों पर,
ज़माना आगे आगे है, वो हमदम भूल जाता है,
चलो कुछ और भी तक़रीर,बनाएं अपनी तकदीरें,
भले दामन किसी का हो, ये जीवन भूल जाता है,
कभी कुछ तो कहो ऐसे की हमको याद कुछ भी है,
मगर ऐसी ही रुसवाई ,मैं क्या हूँ सब भुलाता है.,
ना याद आओ, ना याद करना, हवाओं की बता देना,
ज़माना करवटें ना ले, ये रिश्ता क्या निभाता है,
मिलेगे फिर कभी जब भी कोई दुश्वारी ना आये,
रहा सब याद उसका मुझमें क्या है भूल जाता है.
2 seconds ago · ·
"दिहाड़ी पर जीवन "
गरीब मजदूर का जीवन
*****
सूनी सूनी आँखें हैं आस से भरी हुयी,
सूखी रोटी बांध ली है रात की बची हुयी,
धुप हो या गहन तम पेट का जुगाड़ है,
रोज रोज जिंदगी बस काम की तलाश है
ठौर कहीं और है, घर कहीं पे था कभी,
माँ का दूध कर्ज है, फर्ज से लदा हुआ.
आज का है कठिन,कुछ नहीं मिला कहीं,
कल के चंद नोट से बंधी है कल की आस है.
,
"सहमा हुआ बचपन "
*******
माँ गयी है काम पर, मुझको काम सौप कर,
घर को है संभालना, साफ़ कर बुहारना,
उसका इंतज़ार है, कल से कुछ बुखार है,
दवा नहीं है खा सके, चूल्हा भी ना जला सके,
रोज की जरूरतें रोज पर निसार है,,
आज का पता नहीं, कल का इंतज़ार है,
रोज की ये जिंदगी, बड़ों की जैसे मार है,
हाड तोड़ कर जुटे , मन मैं बस गुबार है.
सड़कों पर भागती दौडती जिंदगी.
**********************
धुप मैं थका है तन, बोझ लिए चल रहे,
चीज़ कुछ बिकी नहीं, सपने पंख झल रहे,
आज हैं खडे यहाँ ,यूँ ही इंतज़ार मैं,
चलना है बहुत ही दूर, घर है एहीं पास मैं,
लोग कैसे कुर्सियों पे वक्त हैं समेटते,
पर यहाँ नसीब मैं कितने धक्के झेलते,
चप्पलें हैं फट गयी, एडियाँ हैं जल रही,
प्यार से हैं बेचते पर लोग कितने सख्त हैं,
कितनी आस थे लिए, छोड़ अपना घर चले,
रोज का सवाल लिए, कदम कदम हैं चल दिए,
"दिहाड़ी कलाकार "
***********
सुबह स्वप्न से शुरू, रात को दिवा स्वप्न,
चित्र से नपे तुले कहदे हैं एक पंक्ति मैं,
कोई सूत्राधार है, और सब शिकार हैं,
तेज बहुत रोशनी, चमक है पर बुझी हुयी,
तितलियों सा उड़ रही, पर हैं सब बंधी हुयी,
सुबह से खाली पेट मैं ना भूख है ना प्यास है
.रंगे हुए परिधान हैं, बस येही अरमान हैं,
काम के लिए जुटें,अब कहाँ आराम है.
बहुत सी बात मन मैं है, मन की ब्यथा अथाह है,
ये दर्द रिस रहा सदा, खुद से ही अब मलाल है,
मुट्ठियाँ भिंची हुयी, रास्ता दिखा गयी,
आज यहाँ काम ख़तम, कल कहाँ बेजार है,
आँख घर है लगी , गयी है वो काम पर,
कुछ तो आज मिलेगा, नाम ना बदनाम हो,
रोज रोज जी रहे, रोज मर के सोचते,
कब तलक जीवन चले,ये समय कब आसान हो.
सूनी सूनी आँखें हैं आस से भरी हुयी,
सूखी रोटी बांध ली है रात की बची हुयी,
धुप हो या गहन तम पेट का जुगाड़ है,
रोज रोज जिंदगी बस काम की तलाश है
ठौर कहीं और है, घर कहीं पे था कभी,
माँ का दूध कर्ज है, फर्ज से लदा हुआ.
आज का है कठिन,कुछ नहीं मिला कहीं,
कल के चंद नोट से बंधी है कल की आस है.
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"सहमा हुआ बचपन "
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माँ गयी है काम पर, मुझको काम सौप कर,
घर को है संभालना, साफ़ कर बुहारना,
उसका इंतज़ार है, कल से कुछ बुखार है,
दवा नहीं है खा सके, चूल्हा भी ना जला सके,
रोज की जरूरतें रोज पर निसार है,,
आज का पता नहीं, कल का इंतज़ार है,
रोज की ये जिंदगी, बड़ों की जैसे मार है,
हाड तोड़ कर जुटे , मन मैं बस गुबार है.
सड़कों पर भागती दौडती जिंदगी.
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धुप मैं थका है तन, बोझ लिए चल रहे,
चीज़ कुछ बिकी नहीं, सपने पंख झल रहे,
आज हैं खडे यहाँ ,यूँ ही इंतज़ार मैं,
चलना है बहुत ही दूर, घर है एहीं पास मैं,
लोग कैसे कुर्सियों पे वक्त हैं समेटते,
पर यहाँ नसीब मैं कितने धक्के झेलते,
चप्पलें हैं फट गयी, एडियाँ हैं जल रही,
प्यार से हैं बेचते पर लोग कितने सख्त हैं,
कितनी आस थे लिए, छोड़ अपना घर चले,
रोज का सवाल लिए, कदम कदम हैं चल दिए,
"दिहाड़ी कलाकार "
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सुबह स्वप्न से शुरू, रात को दिवा स्वप्न,
चित्र से नपे तुले कहदे हैं एक पंक्ति मैं,
कोई सूत्राधार है, और सब शिकार हैं,
तेज बहुत रोशनी, चमक है पर बुझी हुयी,
तितलियों सा उड़ रही, पर हैं सब बंधी हुयी,
सुबह से खाली पेट मैं ना भूख है ना प्यास है
.रंगे हुए परिधान हैं, बस येही अरमान हैं,
काम के लिए जुटें,अब कहाँ आराम है.
बहुत सी बात मन मैं है, मन की ब्यथा अथाह है,
ये दर्द रिस रहा सदा, खुद से ही अब मलाल है,
मुट्ठियाँ भिंची हुयी, रास्ता दिखा गयी,
आज यहाँ काम ख़तम, कल कहाँ बेजार है,
आँख घर है लगी , गयी है वो काम पर,
कुछ तो आज मिलेगा, नाम ना बदनाम हो,
रोज रोज जी रहे, रोज मर के सोचते,
कब तलक जीवन चले,ये समय कब आसान हो.
"पत्थर और बुत"
किसी पत्थर पे कोई तस्वीर बना दी मैने,
जान ही नहीं है बस , पहचान डाल दी मैने,
कोई बुत हो अगर किसी ने तराश दिया,
क्या फर्क है उसमें इसमें एक ही पत्थर ठहरा,
प्यार के रूप का चेहरा, बहुत ही सुंदर था,
जाने कितनी ही रेतों पे अक्स खींचा था,
अभी पत्थर है या मोम बना जाने क्या,
उसकी फितरत मेरी जानिब, ना जाने और क्या,
है उसकी याद हवा बादलों के साथ चली आती है,
आते ही हवा संग उड़ा कर चली ही जाती है,
नहीं रुकती है एक पल भी जेहन के आलों मैं,
दफन है शक्ल मेरे दिल के कई खानों मैं.
आड़े तिरछे से शब्द रेत पे थे फिसल गए,
झरते झरनों की गूँज बारिशों मैं सूख गयी,
बहुत रोका है मैने, बहुत ही संभाला है,
उसकी मर्जी है ये की, याद से रिश्ता न जुडे.
Monday, 25 July 2011
DOSTI BANAAM ANTARDWAND
चलो कुछ बात और करते है, मलाल जो भी परे रखते हैं,
खोल दो गाँठ उस मलाल की अब, हवा मैं उड़के बात करते हैं.
कशिश को हवा दो की पास रहे,खलिश को दूर भेज देते हैं,
बहुत हुआ की अब नहीं सहना, दूरियां पास में बुलाते हैं.
कभी उसने कोई शह दे दी थी, मात हम बेरुखी को देते हैं,
जिदगी है तलब उसकी खातिर, सारे इलज़ाम हमही लेते है,
माना हम बेखुदी में हैं ज़िंदा, उसकी साँसों में बसे होते हैं,
चलो अछा हुआ की शुरू किया, उसकी यादों में ही खुश होते हैं.
कभी हाथों में हाथ होते थे, एक निवाला कुछ ग्रास होते थे,
दोस्ती कर तो ली थी मैने ही, एक ही पल में दोस्त खोते हैं,
अपनी सांसे उधार मांगी हैं, दिन हो थोड़ा पर रात मांगी है,
काश जब आँख बंद हो मेरी, ख्वाब उसके ही हम संजोते हैं.
चलो अछा हुआ की वो तनहा, उसके तन्हाई मेरी यादें हैं,
दूरिया एक पल में कट जाएँ,उसका आगोश मेरी बाहें हैं,
बहुत ही खुशगवार है मौसम, चंद बातें बही भी याद मुझे,
उसे भी याद मेरी आती रहे,आज उससे मेरी फरियादें हैं.
बड़ी रफ़्तार से चलती ,ये दुनिया गिरती पड़ती सी,कहीं दरका हुआ शीशा, कहीं पत्थर की बारिश है,
कहीं है दवानल की आग, कही लहरों की जुम्बिश है,
है भुगता आदमी ही सब,ये उसकी कैसी रंजिश है.
चलो मांगे बहुत सी चीज़ जो खुद मिल नहीं सकती,
बढे हैं हाथ उस तक पर पता है दिख नहीं सकती,
अंधेरे में बहुत से तीर खुद ही यूँ चलाये है,
लगा या ना लगा जाने, कितने तमगे उठाये हैं.
ये उस मर्जी के मालिक से मेरी फ़रियाद है इतनी,
जहां में भेजकर करता ना कुछ भी याद रत्ती भर,
जहां उससे, जहां में हम, करे उसकी सुनो विनती,
छुपा कर मिल भी लो हमसे, है जीवन कितने सख्ती पर.
बहुत ग्यानी बना है वो, मगर अपनी है यहाँ चलती,
ये दोनों हाथ जोड़े मैने तुरत पिघला की नहीं सख्ती,
करुण है भाव अपना जब हुए उसके दरो आसीन,
उसीके हम भी बन्दे हैं, वो मालिक है वही हस्ती.See more
कहीं है दवानल की आग, कही लहरों की जुम्बिश है,
है भुगता आदमी ही सब,ये उसकी कैसी रंजिश है.
चलो मांगे बहुत सी चीज़ जो खुद मिल नहीं सकती,
बढे हैं हाथ उस तक पर पता है दिख नहीं सकती,
अंधेरे में बहुत से तीर खुद ही यूँ चलाये है,
लगा या ना लगा जाने, कितने तमगे उठाये हैं.
ये उस मर्जी के मालिक से मेरी फ़रियाद है इतनी,
जहां में भेजकर करता ना कुछ भी याद रत्ती भर,
जहां उससे, जहां में हम, करे उसकी सुनो विनती,
छुपा कर मिल भी लो हमसे, है जीवन कितने सख्ती पर.
बहुत ग्यानी बना है वो, मगर अपनी है यहाँ चलती,
ये दोनों हाथ जोड़े मैने तुरत पिघला की नहीं सख्ती,
करुण है भाव अपना जब हुए उसके दरो आसीन,
उसीके हम भी बन्दे हैं, वो मालिक है वही हस्ती.See more
KRISHN AUR RADHA
राधे सुकुमारी थारी छवि ही नियारी मारे
मना में ये हंसी मतवारी ऐसी छाय गयी,
मारी हंसी शुद्ध भाव मन ही मन विहसत हूँ,
थारी हंसी में मारी हंसी है समाय गयी,
चितवन चकोरी की में खोय गयो दिन रैन ,
चैन मेरो लूट लियो ऐसे मुसकाय गयी,
कित्ती सारी गोपियाँ रहीं सकुचाय हियाँ,
राधे राधे कहके में तुझमें लुकाय गयो.
छम छम नुपुर को ध्वनि मन में है बसी,
बांसुरी की धुन में तो छन में भुलाय गयो,
राधे तोरी चाल मन समझ के नाहीं समझयो,
तीनो लोक तोरी अंखियन में समायगयो.
कैसे हो बिहारी कान्हा कैसे काहे खोये खोये,
सारी बदमासी इ के पीछे विसराय दियो,
ग्वाल बाल पीछे पड्यो,मति मारी गयी मोरी,
राधे कान्हा एक भयो कहके चिढाय रह्यो.
ऐसन ना ग्वाल बाल ,ऐसो नाहीं गोपियन,
ऐसे नाही प्रभु सबको है भरमाय लियो,
धेनु है चरावत कान्हा, बांसुरी बजावत नाहीं,
राधे संग गोपियन कैसो रास रचाय रह्यो.
नन्द बलिहारी जावे कितनो सब वाको काम,
सब दिसा कान्हा और कान्हा जी सुनाय दियो,
माया को है जाल चारो दिसा दिसा फ़ैल गयो,
चाँद नाहीं सूरज नाहीं, आभा बिखराए दियो,
एक तोरी नाद और एक है ये राधे रानी,
एक ही जगत तुम सभी मैं समाय रहेयो...
******RUDALI*******
"रुदाली"
*****************
कहीं आँखों का खेल भी हो सकता है,
आंसुओं का भी मोल हो सकता है,
कुछ पलों का हिसाब किसी के नाम,
अविरल आंसू ,मजबूरियों की किताब,
ढेह जाते है सब धेले के टुकडे से,
आँचल है फटा है मेले मैं,
काया बस सांस है चलती बस,
तन बिकता जहां के रेले मैं,
दुःख से ही इनका रिश्ता ही,
आँसू और मन भी बिकता है,
धड़कन है तेज धौकनी सा,
अर्पण तर्पण सब बिकता है,
अब कृष्ण कहाँ जो आयेंगे,
आंसू को पोंछ कर जायेंगे,
कल रोई थी वो जार जार,
फटते हैं वस्त्र सिल जायेंगे.
घर पर है शैया मरणासन्न,
आश्न्वित नहीं कभी था मन,
पैसे की चिंता कहाँ करे,
कुछ रूदन सी व्यंजना भरे,
उसके दुःख से आप्लावित हो,
मन थोडा आह्लादित हो,(कुछ पैसे मिलेंगे )
तिल तिल सुहाग उसका जख्मी,
निकली घर से आशान्वित हो,
आंसू की रेखा जम सी गयी,
खेतों पर मेड़ बनी जैसे,
सूखा है खेत बी पानी के,
मेड़ों पर कृषक मरा जैसे,
क्या जीवन की छनभंगुरता,
क्या उसके लिए उम्मीद बनी?
आंसू से भरी पर खुद की नहीं
इश्वर की नियति मजबूर हुयी.
Sunday, 24 July 2011
INTZAAR
मैं अब भी तुम्हारे साथ हूँ एहसास की तरह,
तुम हो करीब मेरे मेरी आस की तरह,
रातों की कालिमा मैं ज्यों उजास की तरह,
गुमशुदा हूँ भीड़ मैं सबसे बिछड़ चुका,
उसमें भी नहीं भूला तुम्हें ख़ास की तरह,
...
दिन रात कुछ नहीं, ये तो सदियों की बात है,
मिलते हैं हम मगर कभी मिल नहीं पाते,
जीवन सफ़र तो यूँ ही ख़तम हो ही जाएगा
बस शेष हो मुझमें जो तुम आभास की तरह,
अब ये ही है नियति अगर तो नियति ही सही,
इनसे ही पूछ लेंगे क्या नियति है मिलन की,
मैने कभी कोशिश ही नहीं की ये सफल हो,
तुमसे ही पूछता हूँ,मैं एक दास की तरह,
इन धडकनों की जब दस्तक सुनाये दे,
खुशबू सी हवा बहके जब कुछ कान मैं कहे,
हाथों से करना कोशिशें छूने की फूलों को,
उड़ता हुआ मिलूंगा मैं कपास की तरह.
बस इंतज़ार है ,नहीं लगता है अधूरा,
इस पर ही चल रहा है चक्र हुआ जो पूरा,
हम भी इसी के दायरे मैं जीते रहेंगे,
जीवन जियेंगे मरू मैं प्यास की तरह,
तुम हो करीब मेरे मेरी आस की तरह,
रातों की कालिमा मैं ज्यों उजास की तरह,
गुमशुदा हूँ भीड़ मैं सबसे बिछड़ चुका,
उसमें भी नहीं भूला तुम्हें ख़ास की तरह,
...
दिन रात कुछ नहीं, ये तो सदियों की बात है,
मिलते हैं हम मगर कभी मिल नहीं पाते,
जीवन सफ़र तो यूँ ही ख़तम हो ही जाएगा
बस शेष हो मुझमें जो तुम आभास की तरह,
अब ये ही है नियति अगर तो नियति ही सही,
इनसे ही पूछ लेंगे क्या नियति है मिलन की,
मैने कभी कोशिश ही नहीं की ये सफल हो,
तुमसे ही पूछता हूँ,मैं एक दास की तरह,
इन धडकनों की जब दस्तक सुनाये दे,
खुशबू सी हवा बहके जब कुछ कान मैं कहे,
हाथों से करना कोशिशें छूने की फूलों को,
उड़ता हुआ मिलूंगा मैं कपास की तरह.
बस इंतज़ार है ,नहीं लगता है अधूरा,
इस पर ही चल रहा है चक्र हुआ जो पूरा,
हम भी इसी के दायरे मैं जीते रहेंगे,
जीवन जियेंगे मरू मैं प्यास की तरह,
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