Saturday 23 July 2011

PANCHHI KA GHAR

वो आड़ी तिरछी रेखाएं खिन्न हुआ मन खींच दिया था,
गुस्से में ऐसे ही कुछ रेखाओं पर गुस्सा आया था,
जाने क्या तस्वीर बनायी, चिड़िया की तकदीर दिखाई,
उलझा उलझा मन था मेरा,अपनी ही तक़रीर बनाए,

...प्यार मुझे पंछी पर आया, क्यों उसको उलझा रखा है,
तारों के जाल बने हैं, अब उसमें इसमें बिठा के रखा है,
कर दूं में आजाद इसे अब, ये मेरी तदबीर नहीं थी,
उड़ जाती चिड़िया बस यूँ ही ये उसकी तकदीर नहीं थी,

नहीं उडाओ मुझको यहाँ से, एहीं ठीक हूँ अब तो में,
ये रेखाएं नहीं आस के तिनके है बिखरे लगते हों जैसे,
इनको ही सुलझाकर में अपना नीड़ बना डालूंगी,
तुम भी आ जाना फिर इसमें, तुमसे भी साझा कर लूंगी,

क्या जाने अनजाने में ही घर था बनाया एक पंछी का,
उसको भी उड़ना नहीं गंवारा ये भूल नहीं नासमझी की,
मेरे मन की उलझन भी ऐसे ही काश सुलझ जाती
इन आड़ी तिरछी रेखाओं से, मंजिल की राह नज़र आती.

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