Monday 25 July 2011

KRISHN AUR RADHA



राधे सुकुमारी थारी छवि ही नियारी मारे
मना में ये हंसी मतवारी ऐसी छाय गयी,
मारी हंसी शुद्ध भाव मन ही मन विहसत हूँ,
थारी हंसी में मारी हंसी है समाय गयी,
चितवन चकोरी की में खोय गयो दिन रैन ,
चैन मेरो लूट लियो ऐसे मुसकाय गयी,
कित्ती सारी गोपियाँ रहीं सकुचाय हियाँ,
राधे राधे कहके में तुझमें लुकाय गयो.

छम छम नुपुर को ध्वनि मन में है बसी,
बांसुरी की धुन में तो छन में भुलाय गयो,
राधे तोरी चाल मन समझ के नाहीं समझयो,
तीनो लोक तोरी अंखियन में समायगयो.
कैसे हो बिहारी कान्हा कैसे काहे खोये खोये,
सारी बदमासी इ के पीछे विसराय दियो,
ग्वाल बाल पीछे पड्यो,मति मारी गयी मोरी,
राधे कान्हा एक भयो कहके चिढाय रह्यो.

ऐसन ना ग्वाल बाल ,ऐसो नाहीं गोपियन,
ऐसे नाही प्रभु सबको है भरमाय लियो,
धेनु है चरावत कान्हा, बांसुरी बजावत नाहीं,
राधे संग गोपियन कैसो रास रचाय रह्यो.
नन्द बलिहारी जावे कितनो सब वाको काम,
सब दिसा कान्हा और कान्हा जी सुनाय दियो,

माया को है जाल चारो दिसा दिसा फ़ैल गयो,
चाँद नाहीं सूरज नाहीं, आभा बिखराए दियो,
एक तोरी नाद और एक है ये राधे रानी,
एक ही जगत तुम सभी मैं समाय रहेयो...

1 comment:

  1. अद्बुत काव्य लगा जेसे भक्ति काल की कोई रचना पढ़ रहे है ---सुंदर प्रवाह में शब्दों का चतुर प्रयोग वो भी अलंकरण विधा मै ---काव्य की उत्तमता को प्रदर्शित करता है ---भाव उत्पत्ति खुद ही हो जाती है --और हम निर्विकार देखते रहते है ---आनंद अनुभव करते है ---बस असीम आनंद ---यही काव्य की खूबी है ---मेरा आभार -----शब्द रचना के लिए ---..

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