Friday, 22 July 2011


श्याम की प्रिया बनी हो, सोच कर इतराती हो,
दामिनी सी चमक चमक गजब सी लहराती हो,
मधबन की डालियों पर झूले डलवाती हो हो, हो,,
कान्हा की जो पेंग पडी, कजरी तुम गाती हो,

यमुना का का जल हरा, श्याम सांवला सा रंग,
गंगा का जल कहाँ ,धवलता चमकाती हो,
गज गामिनी सी फिरो, श्याम को नचाती हो.
श्याम की बांसुरी की तान तुम क्यों शरमाती हो,

गोपियों के संग कान्हा रार क्यों मचाती हो,
वो तो हैं जगत के नाथ, नाम क्यों भुलाती हो,
हम तो रूप देख देख हारे, तू क्यों भरमाती हो,
राधे -श्याम एक ही तो, काहे तुम छुपाती हो.,
 

1 comment:

  1. हम तो रूप देख देख हारे, तू क्यों भरमाती हो,
    राधे -श्याम एक ही तो, काहे तुम छुपाती हो.
    ----बहुत सुंदर अभिव्यक्ति सुमन भावनाओं को शब्दों में बांधना एक अद्भुत कला होती है ---मुझे लगता है की ये बात प्रासंगिक है काव्य की दिशा में ---बहुत -बहुत आभार ----

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