Wednesday 27 July 2011

"पानी का बुलबुला"


 
 
"पानी का बुलबुला"
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कवी कल्पित, दर्पित भावों से कितने भी रूप गढ़े इनका,
देखे जो खुद वो सृजन करे, ये रूप धरे आकान्छाओं का,
ये तिश्नित दुनिया का चेहरा, कुछ दंभ भरा,कुछ बिना भाव,
कुछ भी मोल लगा लो तुम, होगा एक पल मैं एहीं चूर,

कितनी उछाल, कितना सुंदर, इतराना खुद के जीवन पर,
मैं क्या हूँ ये पूछा ही नहीं, ब्योरा देना उसके तन पर,
क्या जीवन की गति साथ चले ? या कोई इशारा करता है,
परछाईं बनकर वो खुद अपने मन का ही पीछा करता है ?

छ्न्भंगुर जीवन का क्या मोल, सब शीशे सा मन का दर्पण,
बुलबुला बना ये धड़क रहा, है ह्रदय नाम इस चिंतन का,
कल तलक हवा के साथ उड़ा, सारी दुनिया थी आँखों मैं,
अब आज जमी पर पडा कहीं बिखरा बनकर यूँ कण कण मैं,

अस्तित्व हमारा अजब गजब, हम विश्व विभा के साछी हैं,
पर मंथन मन कब मान रहा, जीवन की विधा का दैविक पल.
बस एक फूँक और ख़तम हुआ साँसों का आना जाना फिर,
अब कैसे इसे शशक्त करे, जीवन का ताना बाना अब.

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