Friday, 22 July 2011

खुद से ही बात कही ,खुद चुप रहा था मैं,

खुद से ही बात कही ,खुद चुप रहा था मैं,
उसकी तस्वीर से जाने क्या कह गया था मैं,
उसकी जो शक्ल है वो दिल ही जानता है मेरा,
मेरी दुनिया इन्हीं आँखों मैं बसी है सारी,

मैने खींची है दो आँखें, आज तन्हाई मैं
हूँ मुखातिब मैं भी और घायल दिल मेरा,,
जाने कितने गिले शिकवे कहूं मैं रोज इनसे,
ये सब सुनती हैं और जज्ब खुद मैं होता है,

कहीं भी मैं रहूँ उसकी दो आँखें ही पीछा करती हैं,
मेरी आँखों की रौशनी भी बस इनमें बसी रहती है,
मेरे जज्बात बसे हैं इनमें ज़रा तुम गौर करो,
मैं नहीं ये ही हैं मुझमें क्या?मुझसे पूछा करती हैं,

हमने भी दरो-दीवार पे उसका और मेरा नाम लिखा,
नाम की जगह बस उसकी आँखों पर सलाम लिखा,
मेरा क्या है, मैं जो सरहदों पे घूमा करता हैं,
ये आँखें रोशनी हैं मेरी मैं इनसे घिरा रहता हूँ,

रोक देती हैं मुझे खंजरों के साए से,
अपनी पलकों की छाव मैं आसरा देकर,
यूँ छुपाया कभी है दुश्मनों की नज़रों से भी,
क्योंकि उसके चेहरे का अक्स पूरा बदल देता मुझे.

1 comment:

  1. रोक देती हैं मुझे खंजरों के साए से,
    अपनी पलकों की छाव मैं आसरा देकर,
    यूँ छुपाया कभी है दुश्मनों की नज़रों से भी,
    क्योंकि उसके चेहरे का अक्स पूरा बदल देता मुझे.---संवेदनाओं की वीथिका में सच का कदम ---बहुत खूब ---क्या लिख गयी ---बहुत ही सुंदर व्यंजना ----
    ..

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