Monday 25 July 2011



 
बड़ी रफ़्तार से चलती ,ये दुनिया गिरती पड़ती सी,
कहीं दरका हुआ शीशा, कहीं पत्थर की बारिश है,
कहीं है दवानल की आग, कही लहरों की जुम्बिश है,
है भुगता आदमी ही सब,ये उसकी कैसी रंजिश है.

चलो मांगे बहुत सी चीज़ जो खुद मिल नहीं सकती,
बढे हैं हाथ उस तक पर पता है दिख नहीं सकती,
अंधेरे में बहुत से तीर खुद ही यूँ चलाये है,
लगा या ना लगा जाने, कितने तमगे उठाये हैं.

ये उस मर्जी के मालिक से मेरी फ़रियाद है इतनी,
जहां में भेजकर करता ना कुछ भी याद रत्ती भर,
जहां उससे, जहां में हम, करे उसकी सुनो विनती,
छुपा कर मिल भी लो हमसे, है जीवन कितने सख्ती पर.

बहुत ग्यानी बना है वो, मगर अपनी है यहाँ चलती,
ये दोनों हाथ जोड़े मैने तुरत पिघला की नहीं सख्ती,
करुण है भाव अपना जब हुए उसके दरो आसीन,
उसीके हम भी बन्दे हैं, वो मालिक है वही हस्ती.
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