Saturday 23 July 2011

AANKHON KI BHASHA


जब भी ख्यालों मैं उकेरती हूँ कुछ शब्द आँखों पर,
खुशी, और गम की परछाई ही नज़र आती है,
इतने भावों को को कैसे जी लेती हैं ये दो आँखें ,
इतने दर्द-ओ-अलम को कैसे पी लेती हैं ये बस दो आँखें,,
इनकी भाषा अजब सी लगती है मुझे क्या कहूं,,,
...एक ही नज़र मैं ये कैसे सब कुछ समझ लेती हैं ये दो आँखें,

रात के बाद मिले थे वो तनहा तनहा,
एक जमाने के बाद भी देखा तनहा तनहा,
कितना अरसा भी बीता तनहा तनहा,
आँख से आँख मिली थी फिर तनहा तनहा,

सुना है उसमें एक जगह हमारी भी थी,
उसने ही बताया था उसकी आँखें हमारी ही थी,
फिर उसमें किस और का अक्स कैसे नज़र आ गया मुझे,
होगी कुछ मजबूरियाँ उसकी भी तनहा तनहा,

बड़ी ही बेसब्र हो जाती हैं कभी कभी ये आँखें,
छलक कर खुद जुबा का काम करती ये आँखें,
दर्द इतना की खुली हों तो पढ़ लेना इसे कभी,
वैसे दर्द मैं बंद ही रहती है ये बस तनहा तनहा,

किसी की निरीहता से मन बेजार हुआ जाता है,
ये सब तामो-ओ-झाम बेकार हुआ जाता है,
क्या करेंगे हंसके हम अपनी खुशगवारी पर,
मेरे लिए ही रोती हैं उसकी खूबसूरत "आँखें"(माँ की )
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