Wednesday 27 July 2011

"उपभोगता वादी पुरुष और व्यावसायिक होती महिलाए ---आज के संदर्भ में कितने प्रासंगिक है ----?..."


"उपभोगता वादी पुरुष और व्यावसायिक होती महिलाए ---आज के संदर्भ में कितने प्रासंगिक है ----?..."

by Suman Mishra on Thursday, 28 July 2011 at 00:52
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सब कुछ बिकता है,,,,,मगर जादा क्या बिकता है,,,जो भी बिकता है सब इंसान की जरूरत के हिसाब  से ही है,हर जरूरत की चीज़ इंसान की जरूरत के मुताबिक़ ही बनायी जाती है, जो भी उत्पाद है उसकी गुणवत्ता सबसे अधिक माने रखती है, लेकिन गुणवत्ता का माप दंड क्या उपभोक्ता करता है, क्या उसे ज्ञान है की जिस वस्तु को वो खरीदता है उसकी मन मर्जी के मुताबिक़ है की नहीं.कैसे करेगा भी कैसे  सुंदर सुंदर पैक मैं उपलब्ध वस्तु बस आकर्षण का केंद्र हो ही जाती है , दूरदर्शन, समाचार पत्र या पत्रिकाओं मैं बडे ही अनोखे अंदाज सी कारीगरी होती है ,चित्रकारी होती है इन वस्तुओं की देखते ही मन ललकने लगता है की तुरंत वो भी उस वस्तु का उपभोक्ता बन जाए,उपभोक्ता का आकर्षण उत्पाद के प्रति क्या आप जानते हैं....

.हम्म्म्म.....सोचिये......सोचिये........कारन है....."नारी" जी हाँ "नारी" 
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मजबूरियों ने कदम बाहर क्या बढाए
पीछे पलट के देखने का समय ही नहीं मिला,
ये जिन्दगी होती बहुत ही खुशगवार सी,
वो साथ मैं रहता मेरे , हम साथ मैं उसके,
कुछ ख्वाहिशें उसकी भी थी हम ने बढ़ाया हाथ,
जो भी करेंगे भार नहीं होगा मेरा साथ,
कितना कठिन है जीवन , कभी हार है यहाँ,
पर बढ़ गए कदम तो अब करें क्या कहाँ.
मजबूरियाँ बहुत हैं मगर रास्ता नहीं,
जो रास्ता मिला वही अख्तियार कर लिया,
कुछ तो कमी रही है की हम हैं अकेले यूँ,
कुछ आसरा दिखा नहीं, खुद बेजार कर लिया.




"पुरुष उत्पादों पर नारी का चित्रण"
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सूना है आजकल नारी शराब, सिगरेट पीने लगी है, लोग उसपर लांछन  लगाते है,कौन लगाता है पुरुष समाज , उनकी हाँ मैं हाँ मिलाने  वाली उनके सहयोगी ,क्यों अगर नारी पीती है तो लोग उसपर उंगलिया उठायें, और जब उसका विज्ञापन देती है तो लोग उसके कैलंडर घरों मैं लगते हैं, सड़कों पर बडे बडे इश्तिहार लोगों की आँख सकने का काम करते हैं, उसे ही देखकर उस ब्रांड की बिक्री तेजी से होती है.मगर क्यों...क्या नारी निकोटीन या अल्कोहल मैं घुला हुआ नशा है....कभी किसी ने आपत्ति की हम ये शराब को हाथ नहीं लगायेंगे या सिगरेट को छुएंगे  नहीं.
 

खेल के मैदान मैं cheer लीडर्स का बढ़ता प्रभाव.
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अब लोग खेल भावना से नहीं जाते हैं, या जर चौके, छक्के के बाद इन चीयर लीडर्स का क्या समाज
की भावना  बदलती जा रही है, इन्हें उत्तेजक परिधानों को पहनाकर जिस तरह उतारा कूदना टीवी मैं
या मैदान मैं लोगों की नजरें इन्हीं पर जादा होती हैं और खिलाड़ी पर कम,उछलना
जाता है मैदान मैं बडे ही शर्म की बात है भारतीय समाज के लिए, कभी किसी ने आपत्ति की ?




दूरदर्शन विज्ञापन और  खाद्य उत्पादों पर नारी चित्रण..
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आज दूरदर्शन सबसे शशक्त माध्यम है मनोरंजन का और इस माध्यम को छोटे, बडे, बूढे सभी ने अपना अभिन्न अंग बना लिया है, लेकिन विज्ञापनो की बढ़ती तादाद , अश्लीलता की इकाई के शून्य बढ़ती चली जा रही है, नारी पर आरोपित  serials , विज्ञापन मैं नारी का प्रथम दर्जा भले ही उस उत्पाद से नारी का कोई सम्बन्ध न हो,किन्हीं विज्ञापनों पर तो नारी को जानवरों की तरह वस्त्रहीन दिखा कर पुरुष के पीछे भागते हुए दिखाने का क्या औचित्य है ,,,क्या नारी समाज का हिस्सा नहीं, नारी एक वस्तु या उपभोग की चीज़ बन गयी  है,कोई भी पेय पदार्थ  जिस पर नारी का चित्र, वस्त्रों के प्रदर्शनी मैं नारियों की नुमाइश , क्या पुरुष वर्ग अचेत पडा है, उसे आगे नहीं आना चाहिए इसे रोकने के लिए....क्या नारी अगर अपने परिवार के बहारां पोषण के लिए चार पैसे कामना छाती है तो उसे दूसरे क्रियान्वयन छेत्र मैं पारंगत करना चाहिए जिससे विगयापन की गुणवत्ता और उसमें नारी का सहयोग मर्यादित तरीके से हो.




क्या नारी जीवन की प्रासंगिकता ख़तम हो रही है ?
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कुछ गिने चुने ओहदों से नारी का सम्मान हुआ करता ?
क्या लछमी बाई ,रजिया  और चेन्नमा नाम सुना करता,
हर वस्तु अगर बिकती है तो वो घर की शोभा बनती है,
पर उसके पहले नारी की इज्जत तिल तिल कर बंटती है,
क्या दिग दर्शन मैं कितने शब्द बताओ हैं बिन नारी के,
अब कहीं का रख ना छोड़ा है, बस नाम के रह गयी नारी है.




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