शब्दों का डगमगाना क्या हो गया है मुझको
by Suman Mishra on Friday, 17 February 2012 at 15:09 ·
शब्दों का डगमगाना ..क्या हो गया है मुझको
अछरों का तिलमिलाना ..क्या हो गया है मुझको
वयंजनो का कटाछ ...क्या हो गया है मुझको
स्वरों का खुरदुरापन ...क्या हो गया है मुझको
धुएं से भीगी आँखें , कुछ भी साफ़ नहीं है,
रस्तों पर पडे कंकड़ , कुछ तो साफ़ नहीं है
बारिशों की बूंदों से धुले ,कुछ तो साफ़ नहीं है
धुप की रोशनी में कालापन ,कुछ तो साफ़ नहीं है
खोज रहे हैं जाने क्या - ये हाथ छुपी विरासत को,
खोज रहे हैं जाने क्या - पत्थर में टुकडा "पारस" क्या
खोने का डर नहीं है इसको, पारस से होगा भी क्या
कंकड़ पत्थर ही तो बिखरे, लोहे का भ्रम कहाँ दिखा
मन की मुरादें कहाँ गयी बस जीवन ही वरदान यहाँ
जीवन देने का ही हक़ था, जीने का अभिशाप जहां,
कुत्सित नज़रें ठहरी इनपर, भ्रम ये नहीं बस सत्य ही है
एक सहारा तिनके का ही, सर के नीचे रखने दो
कहने को तो विश्व है नापा गिनती अपनी अंगुली पे
सूरज का प्रकाश भी कम है, मन प्रकाश यूँ विस्तृत हो
नक्शे में तो तीन और जल एक भाग धरती ही है
पर इस धरती पर इंसा की फेहरिस्त ये कितनी लम्बी है
हाथ कांपते , काम है मुश्किल जीवन भर तो काम किया
अब क्या देंगे इस पीढी को , येही गरीबी मान मिला,
एक एक अछांश सही है, पर हस्त-लकीरें मस्तक की
जन्म भूमि या देव भूमि,,,,हैवानो में इंसान कहाँ ,,,,,,,जय हिंद....
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