हुआ बावरा मन जब उसका ,स्वप्न ,विछोह और मृगत्रिश्ना
by Suman Mishra on Friday, 20 January 2012 at 16:32 ·
सूखी सी इक डाल छरहरी, आशा की बयार हलकी सी,
नव कोपल से हुयी प्रस्फुटित, हरी हरी कचनार फूल सी,
आग की आभा ज्यों प्रकाश बन, शीतल चाँद की ठण्ड समाये
छु लो तो बस रंग की बारिश , रंगों में जैसे हो नहाये,
श्वेत श्याम सब भूल गयी वो चली मदिर मदिरा सी चढ़ाये
गीत मधुर मुस्कान अधरों पर , पान की लाली ज़रा दबाये
ये क्या बावरी के लछन हैं ? मतवारी मन कौन समझाए
आज वो झोंके की गति लेकर उडी पवन संग ज्यों बौराए.
वो मतवारी रंग की मारी , रंग की भाषा पे बलहारी,
तनिक ना सोचा रंग उड़ेंगे , रंग रेजों की जात हमारी
एक रंग आता एक पल और दूजा चढ़ कर बोल रहा है,
कुछ तल्खी में शब्द पिरोये, दभ में ऐसे डोल रहा है ,
दिल का रंग और रुधिर बहा जो प्रेम की मारी भूल गयी सब,
कैसा प्यार और कैसे वादे, पवन से डाली झुकी जरा वो
फूलों की खातिर झुकना या खुद की बात है भारी लगती,
पल पल दुनिया ये शैदाई, उसे कहाँ अब उड़ने देगी,
रंग भरेंगे , समय की भाषा साथ है चलती समझा देगी,
फूलों की पंखुरिया जैसे, मद और मान को बिखरा देगी,
अब तो स्वपन परायों के हैं, इस विछोह में बस मृग तृष्णा
हुआ बावरा मन जब उसका , अर्थ नहीं था इन शब्दों का.
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