Friday, 10 February 2012

अँधेरे में जो बैठे हैं ज़रा उनपर नज़र डालो


अँधेरे में जो बैठे हैं ज़रा उनपर नज़र डालो

by Suman Mishra on Friday, 27 January 2012 at 16:12 ·


सुना कल ये गीत , कुछ नीद की खुमारी में
अर्थ का ताबो ताब कुछ समझ नहीं आया मुझे,
गीत की पहली पंक्ति जुबान पर चढ़ गयी,
रफ़ी ने शायद किसी खुमारी में गाया था,

ये खुमारी नीद की थी, अँधेरे की थी

या उस नायक की बेबसी के जहर की थी,
या फिर अपने उन्मादी दौर से बाहर आने की थी,
खुद अँधेरे में बैठ कर गाना बस एक पुकार ही थी



जब भी इंसान सूर्य को अस्त होते देखता है
शायद अपने आप में नहीं होता है,
वो विचारों के समूह के बीच में खुद नहीं होता है
कुछ उलझनों में खुद को फना कर देता है,

काश ये सूर्य की लालिमा को खुद में आत्सात करे
इतना की चांदनी की नजर पड़ने से वो हलका सा लाल दिखे
रंगों से सराबोर मन , गर्मी नहीं बस रंग ही हों
शांत झील पट पर चाँद और सूर्य दोनों ही हों


खैर ! विचारों से बाहर आते ही अँधेरे का तगमा,
छोटे नन्हें हाथों में घर के कामों का तगमा,
गरीबों के घर रोशनी के टिमटिमाते दिए,
और थरथराता धुंआ उनकी नसों में घुलता हुआ,

जहर की बूंदों को गिलासों की अंतिम घूँट तक,
कडवी दवा के घूँट अब कमजोर ही करते हैं इन्हें,
अँधेरे से जीवन की शुरुआत और वहीं पे ख़तम सब,
कभी नागरिकता  पे शेखी नहीं बघारनी है इन्हें,,
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