Thursday, 9 February 2012

तिरस्कार.....


तिरस्कार..... 

by Suman Mishra on Saturday, 7 January 2012 at 00:33 ·


बार बार खंडित सी प्रतिमा, बार बार क्यों अश्रु बहे,

क्यों मर्मों की गठरी बनकर नारी तिरस्कृत होके रहे,
क्यों लांछन और कुटिल शब्द से आरोहित हो तिरे बहे,

क्यों शब्दों के बोझ वो लेकर,जीवन पथ पर वही चले,

अधर नयन कम्पन से रम कर, मन में छिपे उदगार कहे,

तिषनित मन और मन की व्यथा से शापित हो बस नाम रहे,
नाम शौर्य की कथा बनी बस, पर नारी क्या बदली है ?
ये तो कभी हुआ था पहले ,परिभाषा अब कौन कहे,




रंगों से रंगकर ये जीवन क्या उसका पथ रंग देगा,
सूरज की लालिमा सुबह थी,दिन प्रचंड क्या कम होगा,
बादल तो छाएंगे उस पर, नहीं कालिमा कम होगी,
नारी जीवन एक नाम है कर्म से ही आहत होगी.

 
बहुत सी आकृतियों में नारी सुन्दरता की मूर्ती बनी,
लोगों ने बस रूप निहारा, आँखों में सुगंध भर ली,
है यथार्थ की प्रतिमा ,बहता शरीर ना मिला कहीं,
क्या शव ही नारी का जीवन, हुआ प्रवाहित "यहाँ वहाँ "

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