कहीं मन पंख सा उड़ता है ,कहीं पत्थर सा भारी है.
by Suman Mishra on Monday, 30 January 2012 at 13:24 ·
कहीं मन पंख सा उड़ता कहीं पत्थर सा भारी है,
कहीं मन बिखरा बिखरा सा, कहीं सिमटा है ख़्वाबों में
कहीं मन शून्य में रहकर,कहीं ये शोर शराबों में
कहीं गिरता है राहों में, कहीं खुद को उठाता है,
ये इश्क भी अजब बात है, जब दूर है तब पास है ,
रिश्तों की अहमियत ही क्या, किस किस को कहें ख़ास है,
फेहरिस्त सी बन जाती है, अजब्नियत नहीं रह पाती है,
पर फिर भी उसकी जगह अलग, सरे आम नहीं वो राज है.
इतनी रूमानियत है फ़ैली, गुलदान की भी जगह नहीं
खुशबू से तर-बतर ये मन , वो अलग ही है जुदा नहीं,
कहीं से कहीं भी बस एक नज़र की ही बात है ,
अब शुबहा तो रहा नहीं, बस जिंदगी की ही बात है,
ये रगों में बह रहा है यूँ, बड़ा तेज सा बहाव है,
कभी नम सी जमी यहाँ, कभी बड़ी सी दरार है
यूँ लोग हैं कराहते , जो जखम मिले जुले से हैं
ये इश्क भी अजीब है , जो मिले हुए ना मिल सके
अब सोचते हैं ख्वाब सा, एक जलजला था चला गया
ये रिश्तों की तहरीर में बंटा था बंटता चला गया ,
अब अलग सा ये दिल बचा, कहता है ये पहचान लो
मेरी नागवारी गयी नहीं , पर उसी का बस खुमार है .
****
No comments:
Post a Comment