एक अक्स जो उभरता है निर्द्वंद सा आकाश में
by Suman Mishra on Thursday, 29 December 2011 at 00:06 ·
एक अक्स जो उभरता है निर्द्वंद सा आकाश में,
कुछ बादलों के टुकड़ों को जुड़ना सा इत्तेफाक में,ee
सोचा हुआ ही शक्ल में, वो ऐसे ही बन कर मिला,
कोई उसे ना रोक ले, बस मुझको ही दिखता वहाँ,
ये कल्पना ये भाव ये या सत्य है,पंखों सा कुछ हल्का सा है,
हल्की हवा के कम्पनो का कुछ ज़रा स्पर्श सा,
आ जान लूं तुझको ज़रा, बन इन्द्रधनुषी रंग सा,
दो बूँद ही बरस गयी, स्वाती नछत्र अमृत यहाँ,
कुछ रश्मि है कुछ रेनू है ,कुछ लालिमा है सूर्य की,
मैं बांधती पुल चली हूँ, जीवन मधुर स्मृतियों की,
तुम जहां हो आकर मिलो, निर्द्वंद तुम आकाश से,
ये तम नहीं प्रकाश है, खींचें हैं बस आभास से,
तुम सत्य हो,पता मुझे, ये धैर्य मेरा कह रहा,
हे ! प्रिय तुम्हें मैं क्या कहूं, बस दिवस तम में ढल रहा,
आशा बनी मेरी अटल ,अब गगन या धरा ही हो,
आवाज दो आगाज से, बस मिलन ये निर्द्वंद हो..
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