बसंत ....पतझड़ के बाद,,,
by Suman Mishra on Sunday, 29 January 2012 at 00:27 ·
नयी कोपलें बेबस ही मन को आकर्षित करती हैं
लेकिन ये चंचल नहीं होती, कोई आवाज नहीं इनमे
बस खुशबू के मानिंद इनकी मौजूदगी हवावों में है
जीवन की शुरुआत और हल्की सर्द हवा इनके सानिध्य
फूलों के रंगों में मिलकर ये जीवन क्यों नहीं रंगा
बस सुगंध की एक बयार से हल्का सा बस महक गया ,
समय समय पर इन ऋतुओं का बारी बारी आ जाना
कभी समय इनका ना बदला, मन पर दस्तक दे जाना
एक पात के सरिस सा ये मन डोल रहा है इधर उधर,
हल्की हवा की एक झोंके से उड़ता फिरता तितर बितर,
कभी फूल सा टूट के बिखरा, कभी सूर्य की चमक भरे
मौसम जब बसंत का आये, झट से अपनी शाख धरे
मन मयूर और स्वर कोयल के एक साथ सुर ताल भरे,
आमों के बौराए पन सा, महक महक मन तान भरे,
हल्की सर्द हवा और पानी दोनों का यूँ मेल नहीं,
सूरज सब कुछ देख रहा है, वासंती मन क्यों हुलसे,
कल तक सूखे कड़ कड़ पत्ते पांवों के नीचे दबते,
नहीं हवाएं ले जाती हैं इन्हें शाख से दूर परे
क्या मालूम इन्हें जो दुःख है अलग हुए हैं शाखों से
क्या अब वापस इसी जनम में जीवन होगा वापस ये
जीवन के इस अजब खेल में कहीं कही खुशियों के रंग,
पर इसके तह में जब देखो बलिदानों के अजब से ढंग,
एक धराशायी है देखो, एक नयी कोपल जैसे,
पतझड़ से रंग खोकर पाया अब बसंत ने कितने रंग,
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