सरहदों के पार जाती हुयी हवा या आती हुयी हवा
by Suman Mishra on Wednesday, 18 January 2012 at 00:42 ·
ये सरहदें इंसान से इंसानों को अलग करती हुयी,
इनसे ही सबकुछ ख्वाबो-खयालात बदल जाते हैं क्या
शक्लों के दरमियान कोई फासला ना हो
मान - सम्मान - अपमान में बदल जाते है क्या
क्या मौसमों की रंगीनियत अलग सी हुयी,
हवा का रुख और खुशबू भी बदल जाती है क्या,
रुख बे-रुखी में बदले या प्यार में ढले
बादलों से बरसात बदल जाती है क्या
मैंने देखा हवावों के दामन सौगातो से भरे हुए
घर की मसालेदार सब्जी की खुशबू से तरबतर
बागीचे के चुनिन्दा फूलों की सुगंध समेटे हुए
चुपके से बह चलती है वो सरहदों के पार
ना मशविरे किसी के , ना कागजों की बातें
ना पता उसके घर का, ना शक्ल का शगूफा
आती है जाती है ,मनचले मन का रिश्ता,
ये हवा सर्द हो या -या गरम लू का तोहफा
बे-खौफ घूमती हैं, इनपर ना कोई बंदिश,
नदियाँ के भी किनारे बंधते हैं बनके रंजिश,
इनपर न जोर कोई, ना बंध सकी किसी से,
इनके रुखों पे टिकती शेह्तीरे आदमी की
पानी अगर रुका है, सूखेगा ताप से ही,
या हाथ से उलीचो , फेंको उसे जमी पर,
कुछ फूल ही प्रवाहित रिश्तों के दरमियान से
स्पर्श इनसे होकर बह ले हवाएं खुलकर.
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