Monday, 20 February 2012

मन की चिता


मन की चिता

by Suman Mishra on Monday, 20 February 2012 at 23:39 ·
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मन की चिता हमेशा जलती रहती है ,
मगर शांत सी, ना कोई धुवां ना ही चिंगारी
किसी के शब्द जो आज भी चुभते  हैं
राहों की सुगमता को दुर्गम बनाते हुए
तीरों की तरह तरकश से  वो शब्द
मन की चिता में एक एक कर स्वाहा होते हुए


इस होमाग्नि में जलाना है बहुत सारे तीखे बाण
धधकती अग्नि को हवा के संपर्क से
लपटों को शीतल करते रहना पडेगा,
बुझ ही जायेगी मगर अभी तो चरम पर है,
मन की चिता और बिष बुझे शब्दों के तीर


तीखे बाण ..लोग खुद की असलियत बताते हैं
शब्दों का प्रवाह हमारी मानसिकता को दर्शाता है
मगर ये विष बुझे तीर समय के साथ टूट जाते हैं
असर छोड़ना चाहते हैं मगर निष्फल से बेकार सिद्ध 

इन्हें  पूछता कौन है..क्योंकि मन की चिता पवित्र है
आने दो इस होमाग्नि में जल जायेंगे ज्वाला में
इसी राख  की मिटटी में दबकर कुछ नए पौधे
जिनपर पुष्पों की कतार लगेगी ,खुशबू बिखेरते हुए


शब्दों का क्या है किसी भी तरह  से कहो,
हर तरफ इंसानी चरित्र की तरह बिखरे हैं,
इन्हें तोहफे की तरह रखना अगर वो सच्चे हों
वरना उसी को वापस जिसने ये बाण छोड़े हैं

क्या पता जीवन की परिधि कब ख़तम हो जाए
फिर मन की चिता को जलाकर रखना जरूरी  है?
इसकी शांत अग्नि  में फूलों की फसल लगाई  है
इनकी खुशबू इस परिधि से जाने को बेताब है
नहीं है परवाह विष बुझे बाणों की ,,,,
बस शांति और दग्ध रोशनी ...इनके रूप का आगाज है
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