Friday, 10 February 2012

बचपन, यौवन और ये शाख


बचपन, यौवन और ये शाख

by Suman Mishra on Friday, 3 February 2012 at 13:51 ·
 "बचपन"

बचपन की दहलीज है छोटी, कितनी बार है लांघी इसको,
बहुत सहज लगता था उड़ना, आसमान को ही बस मापे ,
देह्लीजों के बाहर  दुनिया, और स्वतंत्र मन के हैं कुलांचे
नहीं है बंदिश जीवन में बस, बस निर्द्वंद की बात यहाँ पे


कितने हलके शब्द लिखे हैं, कोई शोर ना कोई शराबा
बस मन उछला एक पाँव से, पडा दूसरा गगन हो आया,
ऊंची ऊंची येही उड़ाने, कब मंजिल तक  ले जायेंगी,
नहीं सोचने की फुर्सत है, ये मुझ तक ही रह जायेंगी ?

"यौवन"

कुछ भारी सी हो जाती है, यौवन की देहलीज पे आकर
शब्दों की गरिमा से लेकर , मन की सोच ठहर का भागे
सड़क के नियमों सा जैसे , रुको देखो और संभल के जाओ,
ये जीवन अब शुरू एहीं से, गलत सही सब येही संभाले,


नहीं है सुनता किसी का ये मन, खुद को आगे रखना चाहे,
जो भाता है मन को मेरे , उसको ही बस पाना चाहे,
मन की भाषा से सर्वोपरि, तन की भाषा पढ़ना चाहे

लछ्य यहाँ पे रोज बदलता, नहीं ठहरता किसी चौराहे!!


"शाखाएं"

अगर शाखा सा हो जीवन, हवावों का पहन परिधान
कभी हल्की सी आहट से, कभी बहती बनी तूफ़ान,
यहाँ कितने बसेरे हैं मगर जडवत येही पर ये
नहीं दहलीज कोई भी येही जीवन का शुभ अंत है

खुश्बुओं से गति इसकी , हवाएं ले बहाती हैं,
मगर कोई ठिकाना ये नहीं अपना बताती हैं,
जहां तक उड़ सके ये मन की आंधी तेज जाती है
ये जीवन जब तलक है साथ बस जीवन ही लुटाती है
                     *****

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