मील का पत्थर ( विषय श्री प्रतुल मिश्र जी )
मील का पत्थर...बड़ा ही अकेला सा नाम
दूर दराज , कतारों में खड़े हुए ये पत्थर
सरसरी सी निगाहों से गुजरते हुए
जाने कितने और कैसे कैसे रंगों में
हाँ दो रंग अधिक थे , सफ़ेद और पीले
कितनी बेजारी होती होगी इन पत्थरों में
एक दम तनहा, एकदम अकेले
रास्तों की धुल और धुएं को फांकते हुए,
कभी सोचा ही नहीं था इन्हें गौर से देखूं
स्कूल जाते हुए कुछ रंगीन पत्थरों को देखा था
मगर क़दमों ने अपने आगी उन्हें तवज्जो नहीं दी
एक बार लम्बी दूरी की यात्रा में गिने जरूर थे
कितना विरोधाभास है हम्मे और इनमे
हम गतिशील और ये स्थिर है एक ही जगह
मगर मंजिल का इशारा करते हुए हमसे ही
मुखातिब है ये मील के पत्थर ..
जीवन नहीं है इनमे लेकिन
गति की सीमा को नापते हुए
कभी कोई पथिक रुका इनके पास,
आवाज आयी थोडा विश्राम कर लो
कुछ पल अपनी साँसों की थकान
को संयत कर लो और अपना हाल कहो,
पथिक ने कोई जबाब नहीं दिया
बस कुछ देर तक ऊंघना और चल दिया
मंजिलों की दूरी कम करता हुआ वो
मील का पत्थर जो गंतव्य का इशारा है
इंसानों के लिए लगाया हुआ तराशा हुआ
जमीनी दूरी को कम करता हुआ
मगर क़दमों से दूरी नापनी होगी
गाडी के शीशे में उभरता अक्स
फिर मिलेंगे कहता हुआ
मगर पवन वेग से विमानों के लिए नहीं
क्या उस ऊपर वाले ने
किसी मील के पत्थर को बनाया है
जिसे देखकर हम अपने जीवन और मृत्यु
की दूरी का अंदाजा लगा सकें
ये हाथ की रेखाएं ,,,होंगी शायद,,,,
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