प्रतिबिम्बों में जी लूं पहले ....
एक सत्य जो सबको दिखता,
एक सत्य प्रतिबिंबित सा है
वेगवान है जीवन पल पल
रुक थोड़ा तू दम्भित क्यों है
जी लूं कुछ पल खुद को खुद में
कह लूं सुन लूं खुद से खुद मैं
एक बार मैं हंस लूं खुद पे
फिर पट बंद हों मन दर्पण के
क्या ये वही जो मैंने देखा
मन वत्सल पर रूप की रेखा
कुछ तो अलग ये होगा मुझसे
मैं या ये प्रतिबिबित चेहरा
जल की सतह शांत पर छिछली
दस्तक दी तो गति पा मचली
आत्मसात दर्पण सा मुझको
क्या है पूछे जैसे सहेली
जीवन जब तक छाया तब तक
परछाई + प्रतिबिम्ब समर्थक
रंग और बे-रंगी सा बाना ,
मन स्थिर , अस्थिर शब् तक
दर्शन क्या है बड़ा जटिल है
एक तिलस्म का जाल बिछा है
सोकर जागा , जाके सोया
मन मंथन हर पल भरमा है
सच को खोजा हर पल छिन में
स्वर्ण में हो या हो तिनकों में
मिला अगर वो बन बैरागी
महल छोड़,,चल मन जंगल में
मैं प्रतिबिम्बों की साछी हूँ
सूर्य दूर पर उसकी प्राची
कर उसका स्पर्श जो बिखरूं
पारदर्श मन जीवन जी लूं,
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