Sunday, 18 May 2014

हम भी भीड़ के नुमाइंदे हैं,,,,

हम भी भीड़ के नुमाइंदे हैं,,,,

22 November 2012 at 23:34


हर तरफ बस चहलकदमी  , दिन दूनी रात चौगुनी
बस शिकारी आँखें ही हैं, छलक कर गिरती बेरहमी
भीड़ में बस  तमाशाई, नजरों पर नजरें चढी हुयी
मन में सीढियां बिना बल्लियों की लगी हुयी

रक्तपात  खुले आम या कटघरों में
लहुलुहान को विजयी घोषित करने का दम
बस इन आँखों की खातिर, इनमे वहशत का नशा
नशे की खातिर का जूनून सरहदों पार से आया हुआ,,




हर जश्न का जूनून भीड़ से होता हुआ
हर खुशी गम का आकलन भीड़ से होता हुआ
माना की हम नहीं शामिल हो सके थे उसमे
मेरी नजरें पैदल चलती रही थी साथ साथ उस भीड़ में

रुको थोड़ा हम थक चुके हैं

चलेंगे अभी पूरी गति से थोड़ी सांस भर लें
हवा का दबाब बढ़ गया है लोग अधिक हैं
मगर चलना तो है आवाज अकेले नहीं सुनता कोई



कहाँ तक तयं है जाना  कभी साथ साथ कभी अकेले
सब समूहों में अलग अलग चेहरे , अलग शख्शियत
बस आवाज का उद्देश्य एक ही है
वैसे आवाज क्यों उठायी , क्या सुनने वाला सुन रहा है ?
कैसे सुनेगा , उसे भय है वो नहीं आयेगा , भीड़ में खो जाएगा


कुछ संदेह  कुछ आवाहन, कुछ सीनाजोरी

मगर इन सबके पीछे कुछ तो है मजबूरी
मजदूरी या खामियाजा ..अंतिम निर्णय
मगर भीड़ में शामिल हर शःख्स साधारण

ना कोई ऐंठन ना ही मगरूरी

स येही भीड़ में सब अपने जैसे है
हम इनके ये हमारे नुमाइंदे हैं
कोई कारण नहीं पूछता है
सब आसमान गिरने की खबर से जागरूक
सब एक साथ आगे बढ़ रहे हैं
मंजिल एक ही है,,,,,चलो कहीं तो एक हुए,,,

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