नीद में डूबा हुआ हूँ,,,,जागू तब होगा सवेरा
नीद में जागा हूँ कितना क्या कहूं
स्वप्न की ऊँगली पकड़ कर मैं फिरूं
झील , दरिया , चश्मों के भी पार मैं
अम्बरों की छत पे जाकर मैं मिलूँ
एक दुनिया है बसी पलकों के पार
दिल से नाता हैं नहीं बस आर-पार
पारदर्शी शीशे सा है एक जहां
छूने से स्वप्निल सी धरती में दरार
ये जहां पलकों के पीछे था बसा
जो मेरे सपनो में आकर कैद था
एक अपराधी सा मन अब रह गया
क्यों बना अपना कोई पैबंद सा
अब मेरी स्वप्निल जमी आजाद है
बे-खयाली से भी तो हम आबाद है
नीद में अब ख्वाब की दस्तक नहीं
रौशनी में हम जरा नाबाद हैं
लहरों का नमकीन सा पानी
ढलका था पलकों के रस्ते
सोचा पहले बह जायेंगा
उलझ गया अलकों के नीचे
छाँव थी , खुशबू भी थी .
हल्की नमी हवा में थी
एक झोंका दस्तकों सा
सुन गया उलझन मेरी
आजकल आँखें खुली है
स्वप्न भी सच्चाई के
है तराशा मैंने कुछ तो
शब्दों के तिनके से ही
मैं नहीं सोया हूँ कबसे
आज सपनो ने कहा
वो भी हैं बेकार अब तो
ठोस सच को वरन कर....
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