Monday, 19 May 2014

अब कहाँ स्पंदनो में सुर की है झंकार बोलो, वक्त की बस मार है

अब कहाँ स्पंदनो में सुर की है झंकार बोलो, वक्त की बस मार है

21 January 2013 at 15:43


अब कहाँ स्पंदनो में ,
सुरों की झंकार है
अब कहाँ सुर सात हैं ,
बस खाली चीख पुकार है

अब कहाँ बोलों में जादू
वो स्वप्न का संसार है
अब तो हथियारों में GUN है
शब्दों में बस फुफकार है

खेलने को खेल कितने
पर कहाँ कोई खेलता
अपने घर के सब खिलौने
सड़कों पे है फेंकता

सच के हथियारों को लेकर
चल पडा है कारवां
कौन लड़ता सरहदों पर
वो तो सड़कों पर खडा

देख लो इनके नमूने
मुंह छुपा कर शर्म से
हाथ में हथकड़ी है फिर
पुलिस का पहरा बड़ा



शर्म वालों की कमी है
शर्मसार तादाद में
हर गली कूचे में कितने
नाम था पैदा हुआ

हर तरफ संगीत का बस
बोलबाला दिख रहा
शब्दों में गाली तमंचे
शब्दों से है बिक रहा

बाँध कर अब कौन घुँघरू
नाचता है भाव में
अब तो हाथों में है प्याले
अखबारों में छप रहा

कितनी बर्बादी खुशी की
कितनी मार है वक्त की
रोता मंहगाई है  इतनी
गम के मारे पी रहा.

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