Sunday, 18 May 2014

हम क्यूँ -परेशां रहते हैं , सब कुछ तो है , फिर भी जीवन के लम्हों की खिडकियों से झांकती ये दो आँखें क्या ढूँढती हैं ? (प्रतुल जी)

हम क्यूँ -परेशां रहते हैं , सब कुछ तो है , फिर भी जीवन के लम्हों की खिडकियों से झांकती ये दो आँखें क्या ढूँढती हैं ? (प्रतुल जी)

20 October 2012 at 15:20


बात तो कुछ अजीब सी है ,,मगर सत्य भी है, अजीब इसीलिए की ये सबके साथ घटित  होती है
ऐसा नहीं जीवन परिवार से परिपूर्ण हो जाता है , लम्हों के रिश्ते हमेशा इंसान के साथ साथ चलते
है ये लम्हें आ आ कर जीवन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं, खुद से बातें करने पर मजबूर
करते हैं और तो और इन्ही लम्हों से मानव मन शाब्दिक भावनाओं के संसर्ग  में आता है ...

कुछ टुकड़े लम्हों के मेरे ,
आ आकर दस्तक देते हैं
कहते हैं क्या भूल गए हो
रोज ही फेरी कर लेते हैं

ये उनका हक़ है जो मुझसे
रोज रूबरू हो जाते हैं
मन की खिड़की खुली अगर हो
खुशबू यादों की भर जाते हैं


एक एक पल इस उम्र की रेखा
ये लम्हे शामिल हैं सबमे
कहीं अश्रु थे , कही हंसी थी
सब मिश्रित से आज ये मुझमे

आज जो खुशियों की चादर है
इन लम्हों के योगदान से
कैसे छोडूं इनको अब मैं
ये मेरे मैं इनका  हमदम 


दो रस्ते हैं मेरे घर के
एक गेट है सांकल वाली
एक मुहाना मन के द्वार से
लम्हों का है आना जाना

मैं इनसे कर कर के बातें
खुद को छु लेता हूँ पल भर
रोज रोज की दिनचर्या है
लम्हे में मैं लम्हा मैं हूँ 

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