प्रेम कहाँ अब एक पिपासा ????
हर रिश्ते में पंख लगे हैं
हर रिश्ता बस नाम का है
कुछ तहजीब अगर ना होती
रिश्ता एक सामान सा है
कहाँ गयी मुक्तक सी हंसी वो
पूरे दिन तक साथ रही
शाम को थक कर पथिक जो आया
सांकल ध्वनि संग साज बजी
कहाँ गयी वो मनुहारी अब
जो रग रग को छूती थी
भूखा हो गर दिन भर का वो
माँ की आस दम भरती थी
अब तो प्रेम भूख बन उभरी
एक पिपासा जग ब्यापित
कही छलक जाए गर अमृत
नहीं मिलेगा (क्यों ?) जग शापित
अब ब्यापार बना है ये तो
लोग बेचते तन ,मन धन
ज्ञान कहाँ और धर्म कहाँ है
मूल मन्त्र बस आत्मसमर्पण
बचपन योवन एक हुआ अब
कोई मर्यादा कैसी
धता बताते अनुशाशन को
बाग़ बगीचे भरे हुए (युवावों से )
प्रेम सत्य है पर आकर्षण
नारी और पुरुष का बस
कृष्ण की आँखों का रस भूला
मीरा सी अब भक्ति नहीं
अब तो दम्भी शब्द बने हैं
ममता भूल राह भटका
घर की रोटी याद नहीं है
कामी मन दीवाना सा
नव निर्मित माटी सा ये मन
अभी है कच्चा रहने दो
एक एक बूंदों के घट सा
प्रेम अनोखा भरने दो
कुछ ममता की आस रहेगी
कुछ कर्तव्य की शाखा सा
कुछ मर्यादित रिश्ते फल से
प्रेम वृछ बस फलने दो
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