वो हम न थे वो तुम न थे वो रहगुजर थी प्यार की (एक कशिश )
कहते हैं गजलों में उसका चेहरा ही नुमाया था
एक कशिश ही थी वरना वो तो अब पराया था
उसको देखा था जो पहली नज़र में था भाया
मगर कशिश ही रही साथ ,उसने कहाँ निभाया
एक हल्की सी दस्तक और हम मुरीद हुए
उसकी हर आदतों से ज़रा सा करीब हुए
कभी झोंके से कोई डाली अगर जो लरजी तो
हमने माना उसकी आहों के हम अदीब हुए
कसीदों की जमी बड़ी ही खूबसूरत है,
कहीं पर वाह वाही जरा सी सरगोशी भी
दूरियों का जख्म, एक नाम का ही मर्म
मगर कशिश है अभी तक,ज़रा सी मायूसी भी
कभी कभी सिमट जाता है जहां उसकी बातों में
वही सड़कें, वही गलियाँ हैं उसकी यादों में
एक अलग सा जहां जिसका कुछ वजूद नहीं
फिर भी वो पास ही रहता है दिन या रातों में
आज बस बे-खयाली में उसका कुछ ख़याल आया
नहीं मिलपाये कभी हल्का सा मलाल आया
हर तरफ रोशनी का जाल फिर भी हम गुमा से हैं
मगर हर बात मेरी उसकी ही जुबा से है
बनायी दूरियां हमने , कहीं मशहूर ना हो
मेरी आँखों की नमी वो कहीं मगरूर ना हो
कुछ तो होगा लकीरों में जो हक़ है उसका
क्या प्यार नाम दूं ? या समय का दस्तूर है ये,,,
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