Sunday, 18 May 2014

टूटता हुआ इंसान

टूटता हुआ इंसान

20 November 2012 at 23:43

कुछ दिन पहले श्री राजीव चतुर्वेदी सर की कविता इसी विषय पर पढी थी,,जो मन में कहीं गहरे तक पैठ गयी थी,,,उस कविता में आकाश पाताल   और मानव में बिघटित हर अंश समाहित था,,,अणु और परमाणु के विघटन को मानव के टूटने से बहुत सुंदर सत्य पंक्तियाँ  थी,,,मेरी प्रिय कविता है वह,,,सच्चाई को सम्कछ रखती हुयी,,,,

हम इस लेखन के धरातल पर कितनी खुशी बांटते हैं और बाँट रहे हैं,,,मगर अंत तो एकाकी मनोवृति के दायरे में इंसान को खुद बांधना ही पड़ता है ,,रंगमंच से उतरकर इंसान उसी दायरे में वापस आ जाता है,,,जीवन येही है,,,किसीने एक टिप्पड़ी की थी,,,फेसबुक पर लोग अपने अवसादों का वमन करते हैं,,,,अगर शब्दों को अवसादों का वमन कहना सत्य है तो हम अपने आस पास भी तो वही देखते सुनते हैं,,,फिर दिखावा क्यों ,,दूरदर्शन कर हर चैनल सब टीवी तो हो नहीं सकता,,,लिखना आसान है ,,,जीवन को महसूस कर के लिखना कठिन है,,,

जिसने सबको जोड़ना चाहा , वो टूट रहा है
एक एक चटकन जो बहुत धीमी थी
उसने खुद नहीं सूना, मगर तोड़ने वाले तोड़ते गए
उसने अपने आंसूओं से जोड़ना चाहा था
उन दरारों को भरना चाहा था
मगर आंसू भी कमजोर लेप की तरह थे

हर इंसान टूटता है कभी ना कभी

साँसों की डोर से पहले भी कई बार,

टूट टूट कर सीखता है

बहुत कुछ हद तक सीखता है

सीखता है तोड़ना दूसरों को

खुद के जख्मों का दर्द दूसरों तक

प्रत्यारोपित करना है उसे
उसके दर्द में और भी टूट कर बिखरें

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ख़ामोशी की दीवार से जुड़ा हुआ
सब कुछ देखता सुनता हुआ,
चाशनी भरी बातों में कहकहे लगाता हुआ
खुद की टूटन से खुद को नजरअंदाज करता हुआ
उसे पता है उसे टूटना है

मगर खुद से खुद को संभालता हुआ
आखिर इंसान कैसे कहलायेगा
उसे खुद को बचाना है
अगर नहीं बचाएगा तो कैसे देखेगा
औरों को टूटते हुए देखना



समाज की प्रत्यंचा चढी हुयी है
कभी भी किसी को तोड़ सकती है
खुद तो शामियानो से घिरे हुए लोग
मगर क्या उस टूटे इंसान का तमाशा लगा है
गीतों में टूटन, शादी समारोह की गहमागहमी
फिर अंत में अवसाद सब ख़तम

एक लंबा उच्छ्वास और आँखों का बंद होना
थकान के बाद वो जो ख़तम हुयी भीड़
उसका अवशेष मन में किरचों की तरह
कुछ शोर में आँखों के दर्द की चुभन
बंद होते ही बिना आवाज किरचों का टूटना
खुलते ही आँखों में लाल डोरे सा दर्पण
सब उस टूटे इंसान की निशानी है



हम टूटे हैं तो हम साछी भी हैं
जो टूट कर भी नाहे हारे
हर कदम एक मीलों की दूरी जैसा
मगर उन्होंने तयं किया ..करना ही है
लडखडाते हुए,,समय की पाबंदी के साथ

मगर समय की पाबंदियां भी तोड़ देती हैं
इस दौड़ भाग की जिंदगी में गिर पड़ता है इंसान
घड़ी की सूइयों के मानिंद चलता हुआ
फिर भी वो आगे ही रहती है और इंसान पीछे
कुछ तो भरोसा होना ही है खुद पर
एक पल में लक्छ्य तो मिलता नहीं
सूना है थोड़ा टूट कर कुछ खोकर
मिलता है,,,,,क्यों ,,,,खैरात नहीं है लछ्य
फिर क्या टूटो जी भर कर टूटो,,,,,,

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