Monday, 19 May 2014

यादों का आकाश है ऊपर , नीचे सपनो की सीढ़ी है

यादों का आकाश है ऊपर , नीचे सपनो की सीढ़ी है

24 February 2013 at 22:17


यादों का आकाश है ऊपर ,
नीचे सपनो की सीढ़ी है
पलकों की हलचल है कहती
मिल जायेंगे रुको अभी तुम.

जब जीवन किसी से जुड़ता है तो कुछ अजीब से एहसास घर बनाने लगते हैं,  मगर फिर ये घर एक एक करके आकाश में बादल बन कर तैरने लगते हैं, उन्हें छूना है तो मन की तरंगों की पतंग उडानी पड़ती है , जी हाँ पतंग, जो उन एहसासों के बादल को सलामी देकर नीचे आ जाती है, क्योंकि कहीं वो कट पिट गयी तो ऊपर से गिर कर बचेगी नहीं, उसके टुकड़े टुकड़े हो जायेंगे, क्योंकि बादल बरसे तो पूरी गल जायेगी , इसीलिए उसे दूर रहना जरूरी है.

कुछ तो कुलांचे शुरू शुरू के
कुछ रंगीन बहुत ही सुंदर
मलयज शीतल सुरभि बही तो
ले जायेगी वो अपने घर

धरती पर रहने वाली वो
प्रेम पताका कैसे दे दूं
डोर है उसकी जिन हाथों में
सरहद उसकी वही से तयं हो.



नीला सा आकाश है ऊपर
नीचे उसका अक्स है फैला
पर हमने रंग खुद ही बनाए
धनुष इंद्र का बना लिया अब

धीरे धीरे कदम है रखना
मंजिल नहीं ना कोई रस्ता
वो तो है अनजान डगर सा
नहीं पता है कहाँ है मुड़ना




कहते हैं अब मिलना होगा
रंग वफ़ा के भरना होगा
कुछ अनजाने रिश्ते हैं जो
कुछ प्रगाढ़ सा जुड़ना होगा

एक खुशनुमा वादी होगी
पग पग पर आजादी होगी
मैं स्वतंत्र अम्बर पर हूँ अब
पाखी रंग सुर्खाबी होगी

नहीं ! रुको देखो धरती को
जो गतिमान युगों युगों से 
दिन और रात उसी के कारण 
अम्बर की विसात क्या उससे ?

मैं धरती पर अग्नि सरीखी
जलूं अगर तो राख बचेगी
अब बहकाना छोड़ो प्रियवर
इसे ही अपना मान चुकी हूँ

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