हवन और हनन ( हर लड़की दुर्गा बन जाए ? क्या सबको स्वीकार है ये ?) प्रश्न है सभी से मेरा
अग्नि शिखा प्रज्ज्वलित हुयी है
होम किया है कुछ शब्दों से
अग्नि बाण की चिंगारी से
होगी प्रस्फुटित हर पल में ये
वैदिक तपो भूमि की धरती
मन मानस के स्वप्न सी थी ये
अब हैं गहरे पातालों से
जन जन भटके दुःख से गहरे
ये अम्बर जो रीता रीता
कुछ टुकड़े बादल के ओढ़ के
हविश धूम्र सा उड़कर कहता
तू भी मुझ सा मोह छोड़ दे
(ये हवन है )
गठबंधन और हवन का रिश्ता
फेरों के संग बंध जाता है
जन्म हुआ नारी का क्योंकर
येही सिध्ह ये कर जाता है
ले सौगातें हुयी परायी
एक देहरी से उस घर आयी
कहीं बिकी और कही थी ब्याही
कहीं विषय बन " वो बौराई "
कहीं स्वतंत्र है शहजादी सी
कही वो गुडिया माँ को सुहाई
शिकन है माथे पर गिन लो तुम
नव जातों में जब बिटिया आयी
आज पुरुष महिषासुर जैसा
छाप रहा है अपनी ख्याति
एक वस्तु और नारी ही तो
खेल रहा है नियति की खातिर
क्या घर में रहने से नारी
पुरुष बला से बच पाएगी ?
अर्थी के सिरहाने रखी
अग्नि हवन की बुझ पाएगी ?
कितना हनन हुआ है अब तक
कितनी जली भस्म सी अब तक
कितनी विकृत हुयी है जल कर
कितनी दबी भूमि के अन्दर?
अब हर नारी दुर्गा बनकर
हनन करेगी तुम्हें दरिंदों
क्या तुमको स्वीकार है बोलो
या फिर रह लो हद के अन्दर
नर का जन्म मिला है तुमको
बनो देवता इस धरती पर
नारी को कह कर तुम देवी
असुर प्रविर्ती के नर धरती पर
(ये हनन है )
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