नारी तुम केवल श्रध्हा हो...? केवल श्रधा ?
शब्दों से रची बसी कविता
या फिर शब्दों में था उपहास
क्यों पदचापों की प्रतिध्वनियाँ
दमनित नारी यौवन ह्रास
बन तितली वो वन वन भटकी
हर उपवन में खिली कली सी
ताप बढ़ा या शून्य बर्फ सी
कहीं जो फिसली नहीं उठी फिर
कहीं दर्प था गहरा गहरा
कही गर्त में उसका चेहरा
कौन था साथी, कौन था मीता
नारी क्योंकर बनी थी सीता
लोग रूप में शक्ति आंकते
दया भाव से भक्ति बांचते
तुम दुर्गा हो तुम कल्याणी
चेहरों पर चेहरे को जांचते
पूछो उनसे क्या श्रधा को
अपने तर्पण में लायेंगे ?
सीता का आकलन जो करते
क्या श्री राम वो बन पायेंगे ?
एक हंसी की खातिर हंस लो
थोड़ी श्रध्हा मन में भर लो
कुछ रिश्तों में राम बनो तुम
कुछ पल उसको उसका दे दो
पंछी जीवन उड़ता रहता
मंजिल मंजिल फिरता रहता
क्या पत्थर है दिल मानव का
पुरुष की आहें नारी तन मरता
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