Sunday, 18 May 2014

एक तसल्ली ..जीवन भर ..क्यों रही अतृप्त नारी (क्या नारी का पथ दुरूह है ?)

एक   तसल्ली ..जीवन भर ..क्यों रही अतृप्त नारी (क्या नारी का पथ दुरूह है ?)

10 December 2012 at 11:10


एक तसल्ली जीवन भर

फिर भी अतृप्त है ये जीवन

पदचाप दखल ना देते गर
खाली पथ नजरों का क्रंदन
 
नारी कितनी अभिशप्त रही

सब भरा पडा है वेदों में

अब भी ना सुधरा है जीवन
कहने को करती सब अर्पण



वो त्याग करेगी अपना सुख
और तुम उसको स्वाहा कर दो
वो जल कर भस्म बनी गर जो
मल कर माथे पर कथा कहो

वो शक्ति नहीं दिखला सकती
लज्जा की पुतली बन बैठी
तुमने ढँक डाला चेहरा भी
कुत्सित नजरों से कहाँ छिपी


जब एक पुरुष ने नारी को
खींचा सड़कों पर पौरुष से
क्या जग में इंसा था कोई
जो भाई बन स्वीकार करे

वो आज पेट की खातिर ही
सौदा करती अपने तन का
क्या नियम बना है नारी का
या पुरुष बेच कर तन जीता ?


ना हवा बंटी , ना धरती ही
ना सूरज चाँद का बंटवारा
फिर नारी पुरुष के नियमों में
नारी पर चलता हरकारा

तुम उठो आज अब सब  भूलो
नारी की छवि पर दृष्टि करो 
कह दो झांसी की रानी बन
हर तबके को तुम हुक्म करो,,,,जय हिन्द,

No comments:

Post a Comment