Monday, 19 May 2014

पुतली यूँ बिन साँसों के

पुतली यूँ बिन साँसों के

22 May 2013 at 00:37


स्वप्नों के उन्माद से जन्मी
काया ये जब दमक गयी
पलकों के पीछे से छिपकर
लुका छिपी सा खेल गयी

कभी देखती  उगता सूरज
कभी चाँद से कुछ बातें
कभी एक दर्पण और वो बस
घंटों मन की सौगातें

पायल और कंगन की ध्वनि से
सप्त सुरों के गीत मिले
हर सरगम में नए राग थे
हर पंक्ति मन मीत के थे

नारी और व्यथा का रिश्ता
हाथों की रेखा धुंधली
नहीं दिखी थी पहले ये तो
आज अचानक गहरी सी


         *****
सांस, आस के रिश्ते को
घुट घुट कर तयं करती है
अपने जीवन के रस्ते को
नाप नाप पग धरती है

मेहंदी और महावर के संग
शहनाई की स्वर लहरी
मगर कहीं उत्ताल तरंगें
डगमग जीवन मय पी के

क्या वो देख रहा है इसको
कठपुतली के नाचों सा
क्यों धागों में बंधी रहेगी
पुतली यूँ बिन साँसों के

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