Monday, 19 May 2014

कहीं हिमखंड सा पिघला .....

कहीं हिमखंड सा पिघला .....

22 January 2013 at 17:03

कितनी सर्द हवाएं हैं की
आसमान बादल बरसाता
कहता है ये जमे हुए हैं,
थर्राता सा आता जाता

दांत बजे हैं कड़ कड़ कड़ कड़ ,
चाय सुडक फिर जोह लगाता
अभी अभी तो पी थी फिर भी
अगली प्याली फिर से मंगाता


मंकी कैप और मफलर में ,
निकले हैं अब सड़क नापने,
तपते पर फिर बैठ गए हैं
जम के लगे अलाव तापने

कभी कभी मन सर्द हवावों
के दबाब मे जम जाता है
शून्य दूर तक छिपा छिपा सा
नहीं नजर कुछ भी आता है

ऐसे में बस मनन का मंथन
जीवन कुछ तो थम जाता है
गति की माप बहुत ही धीमी
महंगाई पर गहराता है

कुछ हिमखंड कहीं पर पिघला
असर हुआ है हर जर्रे में
फिर गरीब के आंसू निकले
हुआ स्खलन फिर पर्वत का

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