Tuesday, 22 May 2012

ख़ामोशी इख्तियार है फिर भी इतना शोर क्यों ?


ख़ामोशी इख्तियार है फिर भी इतना शोर क्यों ?

by Suman Mishra on Tuesday, 3 April 2012 at 16:27 ·


हम खामोश है माना , हमारी हदें हम तक हैं
इसके ही दायरे में हम रहे या येही तक हम है
बड़ी मोटी दीवारें हैं , नहीं आवाज का गरूर
नज़र नीची हमने कर ली, मगर ये बे-इंतिहा शोर

बड़ी रुसवाइया झेली , बड़ा दामन बचाया था
खुद को सात दरवाजों के अन्दर ही बिठाया था
देके ताकीद खुद को जख्म पे मरहम लगाया था
मगर ये "शोर" अब भी कहकहों में सुनना जारी है 


कही पैमाने छलके हैं कही लोगों की मजलिस है
मगर ये लोग भी बे-आवाज से आते हैं जाते हैं,
कोई दरवाजा खुल कर बंद हो बस झिरी ही बाकी
मगर ये "शोर" घर के आँगनो में बस्द्स्तूर जारी है


कहें बर्तन खटकते हैं, कही चूल्हा नहीं जलता
वो सूखे आंसू के धब्बे ढलक कर भी चमकते है
वो नीदों में हैं ख़्वाबों में  अजब है सोंधी सी खुशबू,
मगर ये पेट की सिकुडन शोर अब भी जारी है

 मन के कोहराम से लड़ता, भाव हैं शांत इतने क्यों
करो विद्रोह हक़ का तुम , ज़रा सा शोर करके तुम
मगर हारे पथिक सा गर चलोगे रास्ते पर यूँ
नहीं रास्ता दिखेगा भ्रम से कदम की छाप देखो तुम

करो टंकार कुछ तो धुन बहेगी  जन-मन  शिराओं में
कही से निकलेगी आवाज यूँ फैलेगी दिशाओं में
कोई तो सप्त सुर से अलग ऊंचा स्वर उठाओ तुम
मैं हूँ खामोश अब से मेरी आवाज बन जाओ तुम.

1 comment:

  1. "कहें बर्तन खटकते हैं, कही चूल्हा नहीं जलता
    वो सूखे आंसू के धब्बे ढलक कर भी चमकते है"

    क्या बात है ...वाह!


    सादर

    ReplyDelete