मन विहग सा फिरता अम्बर , पाँव हैं पर पत्थरों पर
मन विहग सा , उड़ता रहता बादलों के संग गगन में,
मैं हूँ धरती तुम हो अम्बर, नहीं मिलना इस जनम में,
जाने कितने साहिलों को छु के गुजरी नदी हूँ मैं
पर लहर का आना जाना यूँ ही है जल के सघन में
पंख का विस्तार कर दूं, या समेटूं खुद में खुद को
धरती से अम्बर की दूरी ना बढ़ेगी ना ही हो कम
आशा के पंख बढ़ रहे हैं, इनको मैं एहसास कर लू
लहर का आना और जाना , संग इनके मैं भी चल दूं
उड़ने की आशा से तिश्नित मन की भाषा लहर जैसी
जाने क्या वो ढूढती है, अनगिनत प्रहरों सी तट पर
जाने कितने अब थपेड़े सहेगा तट ना हो क्रंदन
ढूढती हूँ इसके आंसू, सीपों में मोती अकिंचन
हर तरफ अवसाद फैला, मिलन का उपहास फैला
लहरे साहिल से मिली जब , कुछ नहीं आभास फैला
तट की सीमा वही तक है जहां तक लहरें नहीं है
ह्रदय से मन क्या कहेगा , जहां यादें बलवती है
समय धरती और हकीकत सूना है सब नष्ट होगी
फिर जनम होगा सभी का या ये सृष्टी विलुप्त होगी
अब नहीं पनपेगी धरती , कितनी शलाका दग्ध होगी
फट पड़ेगी ज्वाला बनकर, सूर्य जैसी ये दिखेगी
इसलिए है पंख बांधे गगन से कुछ बात कर लूं
कुछ जमी और जल की सीमा दोनों का सन्देश दे दूं
नहीं अपनी बे-गुनाही , पर ज़रा फ़रियाद कर दूं
आसमानी कुछ फ़रिश्ते , इंसा की बुनियाद रख दूं
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