भूख की बात .......बेटे की जुबानी
by Suman Mishra on Saturday, 12 May 2012 at 00:57 ·
एक बार मेरे ऑफिस में renovation work के तेहत एक मजदूर ने कुछ इस भाव
में कहा की उसे हर वक्त अपने घर की बात याद आती है लेकिन "अब जियरा पोढ़ करेके पडी "
ये पंक्तियाँ आज जब याद आयी तो इस अनुभूति का जनम हुआ,,,
तवे की रोटी
माँ के हाथ से खाई
तृप्त हो गया
सोंधी महक
कहाँ से आयी होगी
बारिश से ही
ये जमी और माँ का हाथ
दोनों में सोंधा पन है
इन शहरों में माँ की कमी है
भीड़ में अब खाली पन है
गया बहुत मैं दूर माँ तुमसे
थाली सजाई थी मैंने
बिलकुल वैसे ही जैसे तुम
मुझे खिलाती आँगन में
पूछ ना लेना क्या खाया था
क्या रखा था थाली में
कांटे चम्मच सब मौजूदा
तुमने भेजे जो हाल ही में
येही होता है जब इंसान कुछ करने की तमन्ना में अपने घर से दूर
कदम बढाता है तब उसके जेहन में बस अपने घर की दीवारें
और माँ पिता की बातें ही होती है , पल पल का उनसे संपर्क
मगर सबको अनदेखा कर वो आगे बढ़ता जाता है, अकेले बढ़ने
वाला इंसान जद्दो जहद की सीमाओं में घूमता पेट तो भरता ही है
लेकिन जिस भूख के लिए पेट भरता है उसमे खुद के हाथ और खुद
से बातें करता है ,,और उन सब बातों में दूरी का एहसास बरकरार
रहता है, अपनी बातों को छुपाना और अपने घर की बातें जानना
उसकी आदत में शुमार होने लगता है,,,,,,
भूख आग है , भूख प्यास है
भूख त्रस्त कर देती है
मैं माँ से हूँ दूर बहुत अब
वो भी तो सब सहती है
कैसे सहता उसकी पीड़ा
कब तक पेट भरेगी वो
अब तक था जीता आया में
कब तक आँचल सिलेगी वो
जल जाऊंगा मरू में तप कर
नहीं डरूंगा कर्म से मैं
वो देगा जब देगा क्यों अब
भाग्य को आगे रखूँ मैं
लोग कहते हैं यहाँ बेटियाँ परायी हैं
आज मैंने भी तो दर दर की ठोकर खाई है
उनका एक घर से दूसरे घर में कदम रखना
मगर बेटे के लिए माँ की बस दुहाई है
आज इन ठीकरों से पाँव डगमगाता नहीं
गिरा हूँ कई बार सहारा अब भाता नहीं
अभी तो देखना शुरू किया है दुनिया को
जख्म कितने भी हों अब मैं उन्हें बहलाता नहीं
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