आज से हम चाँद का बहिष्कार करते हैं,,,,,क्योंकि हम अपनी धरती से प्यार करते हैं,,,
by Suman Mishra on Monday, 30 April 2012 at 01:09 ·
हरी दूब , या सूखी धरती , जिस पर पग फेरे होते हैं
बचपन से अंतिम साँसों तक, जीवन के घेरे होते हैं
येही धरा जिस पर मानव या इश्वर रूप ने जनम है पाया
मेरी माँ है , मेरी अपनी, गर्व से मस्तक ऊंचा पाया
नभ तो सुंदर शाल लपेटे, तारों के है जड़े सितारे
चाँद और सूरज की बिंदी से, हीरे के नग लगा निहारे
बादल के चादर पर रंग के छींटे फूल से बिखरे देखो
क्यों हम नभ को देते उपमा, धरा हमारी हमें पुकारे
बचपन में चाँद और मामा के रिश्ते सा
रोटी माँ के हाथों मांग मांग खाई थी
खुद ही कहानी गढ़ जाने कितनी सारी
चाँद और परियों की माँ ने सुनायी थी
आज तलक नहीं मिला सपने में चाँद वांद
धरती के फूल और तितली सुहाई थी
क्यों ऐसी आशा ,दिलासा की बातों से
अम्बर की बात जैसे स्वप्न में सगाई थी
आज धरा जर्जर है , सूख रही हर दिन है
चीर रहा सीना ये मानव जो धरा पुत्र
सीमा पे प्रहरी सा , खडा लिए बंदूके
अपनी धरा पे ही अपनों का रक्त बहे
सोता जमी पर और देखता है चाँद रोज
बिना किसी भेद भाव धरा ने सम्हाला है
इंसानी फितरत में लिपटी है कायनाते
धरती की सुध आज कौन लेने वाला है
धरती माँ सबकी है, विश्व में कही पर भी
इंसा ने पग पग पर बधन लगाए हैं
धरती के सीने को चीर चीर नीव भरे
रिश्तों को काट छांट रक्त को बहाए है.
आज से अब चाँद नहीं तारों की बात दूर
जननी का दुःख हमें , इसको सजाना है
भार जो लिए है खडी सदियों से जीवन का
इसकी ही रछा में सबको चेताना है,,,
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