Tuesday, 22 May 2012

गाँव की कच्ची दीवारें


गाँव की कच्ची दीवारें

by Suman Mishra on Monday, 9 April 2012 at 01:53 ·

कच्ची दीवारों के ढ़हने का डर, जीवन खुश हो खिलता है
उन्मुक्त और स्वछन्द हंसी में भी थोड़ा पर्दा है
किसी ओट से किसी झिरी से देख लिया बस बहुत है ये
है गति थोड़ी थमी थमी सी पर कह लो कुछ मर्यादा है

दूर बहुत स्कूल है जाना बाँध दुप्पट्टे की गांठे
कड़ी धुप ये  झेल सके तो किसी तरह बस पहुँच पाना
टेढ़ी मेडी मेड़ों पर टुएबेल के पानी की बौछारें
मीठे पानी की बूंदों से खेतों के फसलों पर धारें
 

नहीं दिखावा कोई भी बस धुल फांक कर खुश हो जाते
किसी तालाब के पानी से चुल्लू में भर कर मुंह धो आते
आम टिकोरे बीन बीन कर जेबों में भरकर लाते
माँ के हाथ से चटनी खाकर स्वाद से मन भर तृप्त हो जाते

थोड़ी धुप या जादा गर्मी , सर्दी की ठिठुरन से क्या गम
मनमौजी जीवन बस ऐसे गाँव की देहरी सब की सिकुडन
ओस कुहासा क्या कर लेगा, खेतों पर जाना ही होगा
सूरज निकलेगा जब तब ही , बैलों के संग राह धरेगा



एक अकेला मन क्या जाने खेत और खलिहान की बातें
गाँव बतकही में सुनसुनकर गुनते हैं हम इनको आंकें,
सुबह रेल के सफ़र में जो गति वही गति दिखती है बाहर
सुबह सुबह हल्का सा अन्धेरा,फिर भी जन जीवन सौदागर

निकल पड़े हैं खट पट बर्तन गाँव बहुरिया काम हो पूरे
एक तरह का जीवन इनका ,जाने कितने काम अधूरे
कब होगा इस देश में एका एक तरह का जीवन सब हो,
खेत और फसलों के बीच में हर इंसान का हाथ लगा हो

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