Tuesday, 22 May 2012

अजीब सी कशिश थी उस इत्तेफाक में


अजीब सी कशिश थी उस इत्तेफाक में

by Suman Mishra on Thursday, 29 March 2012 at 01:20 ·

अजीब सी कशिश थी उस इत्तेफाक में 

जो आज ये वजूद था मेरा ये उसका हो गया
चमकती चाँदनी में चहलकदमी के निशा
वो साथ जो चला तो रंग सुनहरा हो गया


कभी थी हाँ कभी थी ना मगर ये बात एक रोज की
सूनी किसी की दासता , सुनायी कुछ और कुछ बया
हिदायतों पे नश्र थी, नजर की भी अलग नज़र
मगर ये दिल जो मानता मन गया  वो बेखबर ...


"कशिश" और इत्तेफाक दोनों पर गहरी नज़र थी
दोनों में एक चुम्बकीय माध्यम था
दोनों में कोई परिचय नहीं बस कशिश का समन्वय
मगर मन इसी कशिश के भ्रम में बहका हुआ सा

भरमाया सा बहका बहका कौन है वो जो साथ महकता

क्या है ये क्या कशिश से  पूछें क्या सच में कुछ गुनता रहता
कभी ये टेसू के रंग जैसा या पलाश सा अग्नि शिखा सा
या फिर रात रानी की खुशबू , हर सिंगार में रचा बसा सा


चन्दन वन में भटक भटक कर गहन वृछ की छाँव ढूढता
या फिर ये कस्तूरी मृग सा मन खुशबू की बात जोहता
आयेगा वो समय कशिश का इत्तेफाक से कुछ पल का था
जीवन संध्या के आगे दिन ऐसे क्रम में कहीं मिलेगा

सभी राह घर को जाती है बस मंजिल की राह बदल लो
भटकन में अथाह पीड़ा है जख्म हरे हैं अभी संभल लो
कई दिशाए प्रेम मार्ग की एक ही है जो राह दिखाए
बस ये तय करना होगा भ्रम पाले या स्वप्न बताएं

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