Tuesday, 22 May 2012

तनिक अनमना हूँ पर जीत लूंगा सरहदों को


तनिक अनमना हूँ पर जीत लूंगा सरहदों को

by Suman Mishra on Wednesday, 16 May 2012 at 01:15 ·

घर से निकला अनमना सा,
अश्रु  माँ के ढलके तन पर
भीगा था जब मेरा कंधा,
बूँद आंसू कांटे सी बन कर

चल पडा हूँ अपने पथ पर
कर्ज है कुछ मेरे मन पर
बोझ का मत नाम देना
कर्म का आधार पहला



भर लूं आँखों में वो चेहरा
फिर ना जाने कब मिलूंगा
चल पडा हूँ सरहदों पे
जमी जो अपना है डेरा

प्यार है मुझको इसीसे
जनम मेरा इसकी खातिर
छीन लूगा दुश्मनों से
आँख से देखे जो शातिर


वज्र सा तन , वज्र सा मन ,
सर्दी गर्मी मुझको संयम
मैं खडा हूँ जिस धरा पे
इसका ही बस मान रख लू

कोई सरहद ना रहे अब
मिल जो जाए ये जमी से
अपनी दुनिया कह सकेंगे
मिलके सब इंसान भी तब


उड़ चलेंगे पंछी बनकर
सरहदों के पार हम तुम
जहां भी मन घर बनेगा
एक नया संसार हम तुम

ख्वाहिशों से बल है मिलता
एक मुट्ठी की है ताकत
हाथ में अब हाथ लेकर
जोड़ लो अपनी शहादत

हम नहीं तो क्या हुआ जग
वीर की उपाधि देगा
धरती का हर चप्पा अपना
एक हैं सब जग हंसेगा

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