Tuesday, 22 May 2012

मन की वो दग्ध ज्वाला आज तक सुशुप्त क्यों है


मन की वो दग्ध ज्वाला आज तक सुशुप्त क्यों है

by Suman Mishra on Monday, 23 April 2012 at 00:01 ·


मन की वो दग्ध ज्वाला आज तक सुशुप्त क्यों है
प्रस्तरों पे जल की बूंदों मन में  सूखा जज्ब क्यों है
क्यों नहीं झकझोर देती हैं दुवा की  नज़्म ताकत
हर तरफ दहाड़ कर आगे बढूँ मैं शब्द आहत

मैं करू ललकार , निकले छनक से तलवार तन से
मैं कहूं प्रिय नाद हो तुम, बांसुरी स्वर धार मन से
मैं कहूं आ मृग की भाँती दबे पांवों तकरार ध्वनि से 
मैं कहूं अब रैन बीती , मत करो श्रृंगार प्रिय से 


तिमिर  को कर दूर खुद से, फेंक चादर तम की अब से
देख आँखें खोल कर तू, द्वार दस्तक सूर्य कबसे
उठ ज़रा नयनो को  मूंदे, शुप्त हैं ये भय मिहिर से
शिव की भृकुटी बांध बल से , तोड़ किरणों के जखीरे


उठ हलाहल पान  कर ले, अधरों पे मुस्कान पहने
मन पे थोड़े सान धर ले, तेज कर कृपान कर ले
कर नहीं तू वक्त जाया ,पग बढे ध्वनि भान कर ले
दे झटक दस्तूर सारे...खुद पे बस अभिमान कर ले



विश्व देखेगा हमेशा , युग युगों तक कृत्य अपना
कौन था जो शब्द मुखरित कर गया एहसान इतना
शब्दों को कृपान जैसा, रक्त से लिख मान कर ले
हर तरफ उच्चारित स्वर हो ,मन्त्र जैसे प्राण भर दे

उदधि ज्वाला रख किनारे, स्वच्छ निर्मल जल समर्पित
एक पल में बदल खुद को मूर्ती को चलायमान कर दे
हर तरफ हर जन बिका है, खुद को तू  मतदान करले
आज जाना आज समझा दग्ध ज्वाला जल चुकी  है

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