जीवन के इस कगार से >,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,>उस छोर तक पहुंचा नहीं
by Suman Mishra on Wednesday, 14 March 2012 at 17:11 ·
इस छोर से जीवन चला , उस छोर पर पहुंचा नहीं
गंतव्य तो वही का था, अब बीच में ठहरा कहीं.
दुनिया बसा तो ली मगर वो घर कहाँ जिसका था वो
सूनी सी आँखें दर्द में, फटता जिगर बस माँ का था
तस्वीरों पर मत जाना बस शब्दों की वर्णमाला है
जीवन एक बटोही सा है, मधुशाला की हाला है
कभी नशे में , कभी होश में , कभी दरक शहतीरों की
कभी फटे पैबंद को सिलती, हाथ बंधे जंजीरों सी
स्वप्नों में तो याद रहा वो , दृश्यों का आना जाना
आँख खुली सब भूल गया याद है बस ताना बाना
क्या जीवन एक स्वप्न में जीना या यथार्थ के साथ रहूँ,
थोड़ा थोड़ा दोनों में हो , थोड़ा सा बस "मैं"मैं रहूँ
दिन का तपना , बूँद पसीना ,इंसा की हालत देखो
पैर में छाले फूट रहे हैं , दिल से आंसू बहते देखो .
कदम कदम वो चलता जाता नहीं कोई भी पूछ रहा
क्यों वो भटक रहा है मरू में पुष्प की चाह जो नहीं मिला
सुनने में आया था उसका दूर गया वो घर से जब
एक या दो ख़त भेज दिए थे थोड़ा फर्ज समझ कर के
एक जन्मदाता है उसका भूल गया कुछ पल में ही
एक जो सबको पाल रहा है खडा है वो उसके दर पे (इश्वर)
खुदगर्जी से जीना सीखा आज पैर पर खडा हुआ
किया ज़रा संघर्ष ये माना, मिली दुवाएं बड़ा हुआ
बेटी ने पकड़ा रास्ता जो हुयी परायी जग जाने
लेकिन जो घर का है वो दूर गया फिर नहीं मुड़ा
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