रिश्तों के त्यौहार,,,,,( माँ - on mothers day )
by Suman Mishra on Sunday, 13 May 2012 at 21:38 ·
होली , दीपावली ,दशहरा ,ईद ,और क्रिसमस तो सूना था
अलग प्रान्तों के नव वर्ष भी ना अनसुना था
लोगों के अपशब्दों में रिश्तों को तौलते हुए गुना था
जाने कैसी ये दुनिया तू तू मैं मैं में सुनकर ये मन अनमना था
आज रिश्ते सड़क पर चलते ही बन जाते हैं
पड़ोसियों से ठन गयी तो तम्बू उखड जाते हैं
अब इन रिश्तों के कोई माने शहरों की दूरियों में गुम हुए
इसीलिए इन रिश्तों की याद के लिए कुछ कार्ड छप गए
माँ का दिन भी अब मुक़र्रर हो गया है लोगों
कम से कम एक दिन तो याद कर ही लो उसे
ये शब्द जो धरती , और अम्बर से जुड़ा है
ये शब्द जो तन मन में झरोखे सा बुना है
जो छाँव है ममता की साए की तरह है
हर सांस कर्जदार जिसकी दुवावों की तरह है
हर वक्त हमारे लिए जीती है वो ताप कर
अब दिन मुक़र्रर कर दिया रिश्ते में बंधी है
अब क्या कहूं माँ शब्द पर मुझको नहीं है थाह
ये धरा , धरनी , धरती से हरदम जुड़ा हुआ
अंकों में पल के हमने सीखा था जब उड़ना
लो कर दिया मुक़र्रर एहसान का एक दिन
ये दूरियां लम्बी हुयी , दिल दूर हो गया
काढा जो माँ के हाथ का दूभर सा हो गया
अब तो समय की शागिर्दी घडिया मंहगी सी
कर के किनारा माँ से डिप-डिप चाय बन गयी
कुछ पल ही अब सही मगर वो स्वर्ग लगता है
हाथों से माँ का सर पे जब स्पर्श लगता है
हाथों की लकीरों से बड़ी सड़के , नौकरी
हर दिन ही बात की मगर ये दिल पत्थर का लगता है
ये रस्म अदायगी सभी दस्तूर खा म खां
इश्तिहार में छपने लगा अब माँ का सहारा
वो कौन सी जमी है जिसपे माँ नहीं होती
फिर दिन मुक़र्रर कर दिया ये किसकी बपौती
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