Wednesday, 30 May 2012

वो बचपन जो रीता रीता , माँ का आंचल दूर हो गया


वो बचपन जो रीता रीता , माँ का आंचल दूर हो गया

by Suman Mishra on Tuesday, 29 May 2012 at 23:47 ·


( ये कविता एक छोटे बच्चे की भावना से प्रेरित है जब किसी बच्चे के माँ बाप का साया अगर बचपन  छोटी सी उम्र जब उसने
 चलना ही सीखा हो तब उसके मन पटल पर अपने आस पास की घटनाओं पर किस तरह का प्रभाव पड़ता है..उसके लिए जीवन की सबसे बड़ी पूँजी माँ और पिता के प्यार का अभाव होता है ,,,,,उसी भावना पर आधारित ये शब्दावली )

वो बचपन जो रीता रीता , माँ का आंचल दूर हो गया ,
सर्द गर्म रातों का साया, जीवन को मंजूर हो गया ,
आज तलक मैं तरस रहा हूँ ,ममता के आंचल की खातिर
दूर गयी क्यों वो  मुझसे , प्रश्न मैं खुद से पूछ रहा हूँ.




रहे अधूरे मेरे सपने , एक समय जब छूटे अपने ,
आँखों में बेबसी के आंसू, ठहरे रहते ना दूं  बहने
एक अकेला बचपन ऐसा , उम्र लगा था अपनी गिनने
कब जीवन को साथ मिलेगा, अपनों का संग तन पर गहने


बचपन की कगार पर जीवन , सूखा था तन भूखा था मन
अलक पलक पर प्यास धरी थी, बूँदें पलकों पर ठहरी थीं
बहती भी तो कौन देखता, नहीं था आचल कौन पोछता
सिमट के सोना खुद से ऐसे, माँ की गोद में सर हो जैसे


कभी भूख से तड़पा था मैं, आज ये दोनों हाथ भरे है
कभी फटे कपड़ों में जीवन, आज सोने के बटन सिले हैं
कभी दूरियां नापी पैदल, पैरों के छालों की गिनती
आज लाल कालीन विछी है , गाडी के पहियों के नीचे


जब लोरी के गीत सुरों में माँ उसकी थी उसको सुलाती
मेरे भी आँखों के सपने , खुली आँख से रात बिताती
मन मसोस कर सो जाता था , स्वप्न बांह में माँ के घेरे
सारा संयम भर लेता था, कुछ  जीवन के नए सवेरे



अब जीवन के इस पड़ाव में सारी दुनिया  घूम रहा हूँ
हर सुख जीवन के लहरों से धुप सुनहली सेंक रहा हूँ
फिर भी मेरा स्वप्न अधूरा , माँ का आँचल में छुपता मै
हाथ पकड़ मैं पिता की अपने , कई खिलौने भी किनता मैं

हे इश्वर क्यों छीना तुमने मुझसे वो अमूल्य निधि थी मेरी
ये सारे सुख दिए जो तूने बदले में मेरी माँ लेली
क्या ब्यापारी तू भी है जो जनम के बदले छीना माँ को
धरती पर आने का सौदा , मुझे अनाथ बनाने तक था ?




श्वेत श्याम तस्वीरों से ही आकर मुझको गले लगा लो
मैं भी जी लूं अपना जीवन , बेटे का अधिकार दिला दो
मेरी ख्वाहिश मेरे सपने , एक अधूरापन जीवन में
सारे सपने पूरे होकर , रहा अधूरा माँ का सपना .

आज देखता हूँ खुद को मैं , खुद के बच्चों में मैं खुद को
उनके सर पर हाथ है मेरा , बीता जो कल वो था अन्धेरा
मैं फिरता था उन गलियों प्रश्न है मेरा इस समाज से,  
प्रश्न है मेरा इस समाज से, क्या वो गूंगा है या बहरा

बहुत प्रताड़ित जीवन है ये ,,,साया नहीं जो माँ का सर पर
लोग नहीं अपने होते हैं , रिश्तों की तादाद हो घर पर
जीवन जीना ही पड़ता है सहकर सबकी तानाशाही
येही था कहना इस समाज से , अश्रु बन गयी  मन की स्याही

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