Tuesday, 22 May 2012

इतना भी मत सोचो की पाषाण बन जाओ


इतना भी मत सोचो की पाषाण बन जाओ

by Suman Mishra on Thursday, 10 May 2012 at 01:40 ·


इतना भी मत सोचो की पाषाण बन जाओ
कल की यादों में आज नाकाम कर जाओ
जो बीता हुआ कल उसे क्यों याद करते हो
दुनिया अलग हुयी , आज बर्बाद करते हो

ये पल जो साथ साथ है आगे चलो इसके
कुछ सोच आसमा और तारों की भी रखो
हम आज इस धरती पे विसाते विछा बैठे
कुछ चाल चलो ऐसी की शह मात ना पाए



फैला है गर अन्धेरा ,उजाले की बात कर
चिड़ियों के कलरवों में रागों की बात कर

किस पंछी ने किस तान से छेड़ी विभावरी

कुछ सुर नए लगे स्वरों को आत्मसात कर


सूरज हुआ मद्धिम और छाने को चांदनी
फिर नंगे पाँव बाग़ में जाने की बात कर
कुछ ऐसा कर की लगे कल की बात आज हो
तारों के अक्स शबनमी बूंदों की बात कर


कुछ यकीन गर नहीं तो मकसद पे सोच क्या
कर के गुजर तू आगे , निशाने पे हक़ जमा
अपनी तो सोच बाद में  अंजाम है पहले
पाषाण नहीं बनना है हम गतिमान हो पहले

दीवानगी का दौर अब तो बीत चला है
उसकी नज़र का ठौर मन को रीत चला है
फिर वो निगाहें करमो की बाबत ये जिदगी ?
बन चुका जो अतीत दौर बीत चला है

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