Tuesday, 22 May 2012

सूखे पत्तों से तुम पूछो अब आगे का क्या है इरादा ,,,(मुझे ये विषय बार बार लिखने को विवश करता है )


सूखे पत्तों से तुम पूछो अब आगे का क्या है इरादा ,,,(मुझे ये विषय बार बार लिखने को विवश करता है )

by Suman Mishra on Monday, 9 April 2012 at 01:48 ·


हम इंसानों  की दुनिया में जीवन और मृत्यु का लेखा
कहीं कही पर आगे भी बढ़ जाते है सब कर अनदेखा ,
पर क्या अपनी याद छोड़ कर फना होगये इस दुनिया से
कुछ आंसू और कुछ जज्बाती कुछ दिन बस मेहमान सोच कर


मैं फिरती हूँ शून्य भंवर में कड़-कड़ पत्तों की है आहट
शाख पे थे तब नहीं थे बोले, अब आवाज में कुछ कडवाहट
अगर पवन का झोंका ना हो येही रहेंगे दर इनका है
बस अंतर अब गति है जीवन उडे यहाँ से नहीं है ठेका



कभी कभी बायु के झोंकों में टूटेंगे येही गिरेंगे
कुछ पैरों के नीचे होंगे कुछ झोकों के संग बहेंगे
वश गर होता एक शाख पर ही जीवन के अंतिम छन
मगर उम्र तो निश्चित ही है, इंसा हो या पत्तों का क्रंदन


मोहपाश जीवन में सबके बंधा हुआ जग इसीसे हर पल,
जीता है वो सबमे परात्पर एक दूसरे के खातिर ही
कोई दुश्मन की साँसे रचती है षड्यंत्र हमेशा
कोई जीवन देता है अपने जन में बन के भरोसा .


मौन स्वीकृत है जीवन की इस समय के साथ है चलती जाती
कितने दिन ये पंख उड़ेंगे या जल पायेगी दिया में बाती
गुपचुप भाषा समय निरंतर कुछ कहता है बिना शब्द के
बस जरिया है प्रकृति के जरिये बन सन्देश पहुंचता इनसे


टूट शाख से उड़ा ना जाने कहाँ कहा ये सफ़र करेगा
गति मिली है अब जाकर के अब तो यहाँ ये ना बहुरेगा
मिल जाएगा फिर माटी में अपने तन के टुकड़े कर के
ये फिर चूर चूर होगा ये रौंदा हुआ मुसाफिर जैसे


हम इंसानों की बस्ती में बुनियादों से घर बनता है
पत्तों के जीवन की रसता, जड़ों से ही जीवन पनपा है
सच्चे संगी येही हमारे एक समान है छाया इनकी
हम हैं मुसाफिर चलित बटोही ,पथिक एक जैसे मन तनका

अवधि गिने या कर्म की परिणित दोनों ही तो साथ चलेंगे
हम गतिहीन नहीं होंगे जब पत्तों का आवरण पहनेगे
अग्नि शिखा और शाख पे काया, धुंआ उड़ा गतिमान सो गए
लौट नहीं पायेंगे फिर से, यादों में विद्यमान हो  गए

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