वो तकाजा और ये वक्त,,,
by Suman Mishra on Saturday, 17 March 2012 at 00:38 ·
कहीं पहुचने की जल्दी नहीं उसे ,
बस आजकल वक्त नहीं कटता है उसका. (ये दो पंक्तियाँ मेरी नहीं )
कैसे ये वक्त आज कुछ थमा थमा सा है
क्यों ये मन आज कुछ किसी बात पर सहमा सहमा सा है
थका हूँ इतना की मैं सोच नहीं सकता अभी
रात या दिन का उजाला है या कुछ आँखों में जमा जमा सा है
वो जो दिन रात की मशक्कत और कुछ चन्द खुशियाँ
वो ज़रा सी मिठाई और नमकीन पुडिया
एक त्यौहार और हज़ार अफ़साने उसके
छलकता मन था लबों पे हंसी की तुकबन्दियाँ
आज परहेज क्यों करता है मन इन सबब से हो दूर
कहाँ पहुंचा हूँ मैं अब नहीं आगे का रास्ता,
काम की बात नहीं कोई दरवाजा नहीं खुलता
आज मैं जंग से लौटा हुआ सिपाही सा बस यहाँ
मेरी नज़रें हैं नापती घड़ी की सूईओं को यूँ
ये तो थकती नहीं बस एक दायरे में घूमती
कोई मंजर नया नहीं, कोई रूतबा मिला नहीं
मगर इस चाल में ज़रा सी कभी क्यों खलल नहीं
नहीं कोई तकाजा है नहीं कोई भी है बंदिश
अगर ये वक्त रुका मुझे ये चला ना सकेगा
किसी किताब के पन्नो पे लिखे अच्छरों की तरह
शब्द जो गलत दिखेंगे मगर मिटा ना सकेगा
आज मेरा वजूद क्या वही जो "था" हुआ अभी
लोग उस याद को चश्मे की नज़र दे रहे हैं क्यों
ये माना पल का यूँ रुकना नहीं मुझको अभी मंजूर
अभी चला हूँ मैं देखो यादों को पीछे छोड़ कर,,,
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