ये धुंआ और सांस कब तक ले सकेगी ये बेचारी....
by Suman Mishra on Thursday, 26 April 2012 at 12:24 ·
जाने कितनी साँसों में भरता धुंआ अब जान लेगा
या तो भरना पेट है या फिर कहीं दूकान लेगा
ये है हिस्से बेटियों के , काम तो उनकी सजा है
पहला है कर्तव्य घर का ,मन पतीले पर लगा है
कितनी परियों की कहानी ,सूनी थी और गुनी भी थी
राज कुवरों से मिली वो स्वप्न में ही हंसी थी वो
कही टापें अश्व की या पंछियों की गूँज सुनती
पर पृथक सी अबला बनकर धुएं में छिपती हुयी सी
ये शिखा चाणक्य की या केश बिखरे द्रौपदी के ,
सीता के द्वय गमन से या देवकी के बन्धनों के
आज भी ये दृश्य स्थित , नहीं कमतर कही से भी
निकलो बाहर देख लो हर कदम पर मिलती अनंतर
ये पृथा ही रही हरदम, पृथक इसकी नब्ज चलती
रीतियों की तूलिका इसमें नए से रंग भरती,
पीढ़ियों से आजतक क्यों रंग इसके हैं पुराने
सोचना है धुएं का संग, साथ में इसके उड़ा रंग
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