Tuesday, 22 May 2012

तेज नहीं बस हलचल सी है मन की लहरें बस ऐसे ही,,,,


तेज नहीं बस हलचल सी है मन की लहरें बस ऐसे ही,,,,

by Suman Mishra on Tuesday, 10 April 2012 at 17:08 ·



लहरों की सी वेगमय थिरकन , वेग प्रबल पर अंत सौम्य है
आती है साहिल से मिलने , आतुर मन सचित संवेग से
दूर से ही लचकाती काया , जाने कितने बल पड़ जाते ,
आकर बिछ जाती है खुद से , त्वरित नहीं है तनिक यहाँ पे


धवल वस्त्र पहन कर थी निकली, साहिल पे आ एक हो गयी
सीप के गहने टंका है आँचल,प्रिय से मिलन विभोर हो गयी
लहर की गति मन की माप से , विरह बियोग है एक इकाई
भावों के आने जाने सी , कभी मिलन सी कभी जुदाई


मन उद्द्वेलित , मन आंदोलित, मन विस्मित है कभी कभी
काश ये लहरों जैसा होता , गति और गंतव्य समझ सकता
नहीं रोकता कोई इसको, "बाँध" ना बनता कभी हृदय पर
बस स्वछन्द विचरता हरदम , स्वच्छ और निर्मल फेन सा

ऐसी भी गति क्या गति है वो , जिसमे दिशा नहीं निर्धारित

दिग-भ्रम से क्या हासिल मन को , विचरण ऐसे ही विस्तारित

फ़ैली है मरू भूमि के जैसी सारी दिशाएँ एक सी साबित
मन की राह पे पथिक थकित से , नहीं गति फिर किस पर आश्रित

लहरों से मैंने पूछा था क्या क्या ले सौगाते आयी
साहिल से मिलने पर उसको प्रेम की क्या दिखती परछाई
क्या साहिल लहरों पर निर्भर , खोया रहता है इनमे ही
इसकी भी सीमा का अंतर दीखता है बढ़ता है घटकर

सौगातों का अजब सिलसिला लहरों ने रखा है तट पर
खुद का आर्तनाद संचित है शंखों में यूँ शंखनाद थिर
 नहीं है रुकती पल भर भी ये देके निशानी विदा है लेती
चाँद की बिंदी अम्बर पर जब फिर ये लौट कर तट को भिगोती



पुनरावृत्ति है होती पल पल तभी तो साहिल वही रुका है
उसके अंकों में लहरों की सौगातों का जाल बिछा है
प्रेम तपस्या दोनों में है माना छनिक है फिर भी शाश्वत
क्या ! येही प्रेम है सत्य सा दर्पण युगों से चंचल और अनवरत ?


सीपों और शंखों की माला लहरों का साहिल को अर्पण
गूंथ दो फिर पहना दो उसको सुंदर सा बन पहन आभूषण
येही सदेश शब्द में रचकर मैं मन को अर्पित करती हूँ
वही लहर और वही किनारा- इन्सां मन विचलित फिर क्यों है 

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